कुम्भ का आध्यात्मिक महत्व--

कुम्भपर्व का मूलाधार पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोल विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण करती है। कुम्भपर्व एक ऐसा पर्वविशेष है जिसमें तिथि, ग्रह, मास आदि का अत्यन्त पवित्र योग होता है। कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है। स्कन्द पुराण में लिखा गया है कि -


चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।

ज्योतिषीय महत्व--
अर्थात् जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृतकुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त से रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। इन देव दैत्यों का युद्ध सुधा कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भपर्व की स्थिति बनती है।

वृषभ राशि में गुरू मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भपर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भपर्व के विषय में- "वृषराषिगतेजीवे" के समान ही "मेषराशिगतेजीवे" ऐसा उल्लेख मिलता है।

कुम्भ पर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भपर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भपर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरू ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतः विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरूषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है।

प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घडी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2.5 दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घडी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौरवर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घडी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घडी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घडी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भपर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।
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परम्परा कुंभ मेला के मूल को 8वी शताब्दी के महान दार्शनिक शंकर से जोड़ती है, जिन्होंने वाद विवाद एवं विवेचना हेतु विद्वान सन्यासीगण की नियमित सभा संस्थित की। कुंभ मेला की आधारभूत किवदंती पुराणों (किंबदंती एवं श्रुत का संग्रह) को अनुयोजित है-यह स्मरण कराती है कि कैसे अमृत (अमरत्व का रस) का पवित्र कुंभ (कलश) पर सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिसे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में प्रस्तुत किया गया था। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत जब्त कर लिया एवं असुरों से बचाव कर भागते समय भगवान विष्णु ने अमृत अपने वाहन गरूण को दे दिया, जारी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी। सम्बन्धित नदियों के प्रत्येक भूस्थैतिक गतिशीलता पर उस महत्वपूर्ण अमृत में बदल जाने का विश्वास किया जाता है जिससे तीर्थयात्रीगण को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव में स्नान करने का एक अवसर प्राप्त होता है। शब्द कुंभ पवित्र अमृत कलश से व्युत्पन्न हुआ है।

प्रयागराज में कुम्भ---
हिन्दू धर्मावलम्बी तीर्थयात्रीगण के बीच कुंभ एक सर्वाधिक पवित्र पर्व है। करोड़ों महिलायें, पुरूष, आध्यात्मिक साधकगण और पर्यटक आस्था एवं विश्वास की दृष्टि से शामिल होते हैं। यह विद्वानों के लिये शोध का विषय है कि कब कुंभ के बारे में जनश्रुति आरम्भ हुई थी और इसने तीर्थयात्रीगण को आकर्षित करना आरम्भ किया किन्तु यह एक स्थापित सत्य है कि प्रयाग कुंभ का केन्द्र बिन्दु रहा है और ऐसे विस्तृत पटल पर एक घटना एक दिन में घटित नहीं होती है बल्कि धीरे-धीरे एक कालावधि में विकसित होती है। ऐतिहासिक साक्ष्य कालनिर्धारण के रूप में राजा हर्षवर्धन का शासन काल (664 ईसा पूर्व) के प्रति संकेतन करते हैं जब कुंभ मेला को विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के मध्य व्यापक मान्यता प्राप्त हो गयी थी। प्रसिद्व यात्री हवेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में कुंभ मेला की महानता का उल्लेख किया है। यात्री का उल्लेख राजा हर्षवर्धन की दानवीरता का सार संक्षेपण भी करती है।

राजा हर्ष रेत पर एक महान पंचवर्षीय सम्मेलन का आयोजन करते थे, जहां पवित्र नदियों का संगम होता है और अपनी सम्पत्ति कोष को सभी वर्गो के गरीब एवं धार्मिक लोगों में बाँट देते थे। इस व्यवहार का अनुसरण उनके पूर्वजों के द्वारा किया जाता था।

प्रयागराज में कुम्भ--
प्रयागराज में कुम्भ मेला को ज्ञान एवं प्रकाश के श्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वो में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य जो ज्ञान का प्रतीक है, इस त्योहार में उदित होता है। शास्त्रीय रूप से ब्रह्मा जी ने पवित्रतम नदी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था।

कुम्भ का तात्विक अर्थ---
कुम्भ सृष्टि में सभी संस्कृतियों का संगम है। कुम्भ आध्यत्मिक चेतना है। कुम्भ मानवता का प्रवाह है। कुम्भ नदियां, वनों एवं ऋषि संस्कृति का प्रवाह है। कुम्भ जीवन की गतिशीलता है। कुम्भ प्रकृति एवं मानव जीवन का संयोजन है। कुम्भ ऊर्जा का श्रोत है। कुम्भ आत्मप्रकाश का मार्ग है।
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कुम्भ का ज्योतिषीय महत्व--
कुम्भपर्व का मूलाधार पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोल विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण करती है। कुम्भपर्व एक ऐसा पर्वविशेष है जिसमें तिथि, ग्रह, मास आदि का अत्यन्त पवित्र योग होता है। कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है। स्कन्द पुराण में लिखा गया है कि -


चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्र गुरू रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरूसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।

👉🏻👉🏻ज्योतिषीय महत्व--
अर्थात् जिस समय अमृतपूर्ण कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृतकुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ के टूटने से रक्षा की। देवगुरू बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त से रक्षा की। इसी लिए उस देव दैत्य कलह में जिन-जिन स्थानों में (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भपर्व होता है। इन देव दैत्यों का युद्ध सुधा कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं। 12 वर्ष के मान का देवताओं का बारह दिन होता है। इसीलिए 12वें वर्ष ही सामान्यतया प्रत्येक स्थान में कुम्भपर्व की स्थिति बनती है।

वृषभ राशि में गुरू मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भपर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भपर्व के विषय में- "वृषराषिगतेजीवे" के समान ही "मेषराशिगतेजीवे" ऐसा उल्लेख मिलता है।

कुम्भपर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है। परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भपर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति को प्रतिवर्ष चारों स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भपर्व के समय वृष के गुरू रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरू ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतः विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारो पुरूषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है।

प्रत्येक ग्रह अपने-अपने राशि को एक सुनिश्चित समय में भोगता है जैसे सूर्य एक राशि को 30 दिन 26 घडी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि का भाग लगभग 2.5 दिन में पूरा करता है तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घडी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है। किन्तु सौरवर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घडी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घडी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घडी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भपर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।
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अखाड़ा---

अखाड़ा शब्द को सुनते ही जो दृश्य मानस पटल पर उतरता है वह मल्लयुद्ध का है। किन्तु यहाँ भाव शब्द की अन्वति और वास्तविक अर्थ से संबोधित है। "अखाड़ा" शब्द "अखण्ड" शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ न विभाजित होने वाला है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु साधुओं के संघों को मिलाने का प्रयास किया था, उसी प्रयास के फलस्वरूप सनातन धर्म की रक्षा एवं मजबूती बनाये रखने एवं विभिन्न परम्पराओं व विश्वासों का अभ्यास करने वालों को एकजुट करने तथा धार्मिक परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए विभिन्न अखाड़ों की स्थापना हुई। अखाड़ों से सम्बन्धित साधु-सन्तों की विशेषता यह होती है कि इनके सदस्य शास्त्र और शस्त्र दोनों में पारंगत होते हैं।

अखाड़ा सामाजिक व्यवस्था, एकता और संस्कृति तथा नैतिकता का प्रतीक है। समाज में आध्यात्मिक महत्व मूल्यों की स्थापना करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य है। अखाड़ा मठों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना है, इसीलिए धर्म गुरुओं के चयन के समय यह ध्यान रखा जाता था कि उनका जीवन सदाचार, संयम, परोपकार, कर्मठता, दूरदर्शिता तथा धर्ममय हो। भारतीय संस्कृति एवं एकता इन्हीं अखाड़ों के बल पर जीवित है। अलग-अलग संगठनों में विभक्त होते हुए भी अखाडे़ एकता के प्रतीक हैं। अखाड़ा मठों का एक विशिष्ट प्रकार नागा संन्यासियों का एक विशेष संगठन है। प्रत्येक नागा संन्यासी किसी न किसी अखाड़े से सम्बन्धित रहते हैं। ये संन्यासी जहाँ एक ओर शास्त्र पारांगत थे वहीं दूसरी ओर शस्त्र चलाने का भी इन्हें अनुभव था।

वर्तमान में अखाड़ों को उनके इष्ट-देव के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-

शैव अखाड़े इस श्रेणी के इष्ट भगवान शिव हैं। ये शिव के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं।वैष्णव अखाड़े इस श्रेणी के इष्ट भगवान विष्णु हैं। ये विष्णु के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं। उदासीन अखाड़ा सिक्ख सम्प्रदाय के आदि गुरु श्री नानकदेव के पुत्र श्री चंद्रदेव जी को उदासीन मत का प्रवर्तक माना जाता है। इस पन्थ के अनुयाई मुख्यतः प्रणव अथवा ‘ॐ’ की उपासना करते हैं।
अखाड़ों की व्यवस्था एवं संचालन हेतु पाँच लोगों की एक समिति होती है जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश व शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है । अखाड़ों में संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है इसके बाद निरञ्जनी और तत्पश्चात् महानिर्वाणी अखाड़ा है । उनके अध्यक्ष श्री महंत तथा अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामण्डेलेश्वर के रुप में माने जाते हैं। महामण्डलेश्वर ही अखाड़े में आने वाले साधुओं को गुरु मन्त्र भी देते हैं। पेशवाई या शाही स्नान के समय में निकलने वाले जुलूस में आचार्य महामण्डलेश्वर और श्रीमहंत रथों पर आरूढ़ होते हैं, उनके सचिव हाथी पर, घुड़सवार नागा अपने घोड़ों पर तथा अन्य साधु पैदल आगे रहते हैं। शाही ठाट-बाट के साथ अपनी कला प्रदर्शन करते हुए साधु-सन्त अपने लाव-लश्कर के साथ अपने-अपने गन्तव्य को पहुँचते हैं।

अखाड़ों में आपसी सामंजस्य बनाने एवं आंतरिक विवादों को सुलझाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् का गठन किया गया है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ही आपस में परामर्श कर पेशवाई के जुलूस और शाही स्नान के लिए तिथियों और समय का निर्धारण मेला आयोजन समिति, आयुक्त, जिलाधिकारी, मेलाधिकारी के साथ मिलकर करता है।

आज इन अखाड़ों को बहुत ही श्रद्धा-भाव से देखा जाता है। सनातन धर्म की पताका हाथ में लिए यह अखाड़े धर्म का आलोक चहुँओर फैला रहे हैं। इनके प्रति आम जन-मानस में श्रद्धा का भाव शाही स्नान के अवसर पर देखा जा सकता है, जब वे जुलूस मार्ग के दोनों ओर इनके दर्शनार्थ एकत्र होते हैं तथा अत्यंत श्रद्धा से इनकी चरण-रज लेने का प्रयास करते हैं।
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दण्डी बाड़ा---
हाथ में दण्ड जिसे ब्रम्ह दण्ड कहते है, धारण करने वाले संन्यासी को दण्डी संन्यासी कहा जाता है। दण्डी संन्यासियों का संगठन दण्डी बाड़ा के नाम से जाना जाता है। “दण्ड संन्यास” सम्प्रदाय नहीं अपितु आश्रम परम्परा है। दण्ड संन्यास परम्परा के अन्तर्गत दण्ड संन्यास लेने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को है। प्रथम दण्डी संन्यासी के रुप में भगवान नारायण ने ही दण्ड धारण किया है।

"नारायणं पद्य भवं वशिष्ठं, शक्तिं च तत्पुत्र पाराशरं च
व्यासं शुकं गौड़ पदं महन्तं गोविन्द योगिन्द्रमथास्य शिष्यं
श्री शंकराचार्यमथास्य पद्य पादं ए हस्तामलकं च शिष्यं
तं त्रोटकं वार्तिककार मनमानस्य गुरु सततं मानतोऽस्मि।।"

तत्पश्चात् भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की और इन चारों मठों में धर्माचार्यों की नियुक्ति की। तदुपरान्त धर्म की रक्षा के लिए भगवान आदि शंकराचार्य ने दशनाम संन्यास की स्थापना की, जिनमें तीन (आश्रम, तीर्थ, सरस्वती) दण्डी संन्यासी हुए और सात अखाड़ों के रुप में स्थापित हुए। उपर्युक्त तीन नामों में सर्वप्रथम आश्रम आता है। इनका प्रधान मठ शारदा मठ है, इनके देवता सिद्धेश्वर और देवी भद्रकाली होती हैं तथा इनके आचार्य विश्वरुपाचार्य हैं। इनके ब्रम्हचारी की उपाधि 'स्वरुप' है। इन्हीं में दूसरा नाम तीर्थ आता है जो आश्रम के ही समस्त आचरण को अपनाते हैं। तीसरा नाम सरस्वती है, जो शृंगेरी मठ के अनुयायी होते हैं।
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आचार्य बाड़ा---
आचार्य बाड़ा सम्प्रदाय ही रामानुज सम्प्रदाय नाम से भी जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के पहले आचार्य शठकोप हुए जो सूप बेचा करते थे। "शूर्पं विक्रीय विचार शठकोप योगी"। उनके शिष्य मुनिवाहन हुए। तीसरे आचार्य यामनाचार्य हुए। चौथे आचार्य रामानुज हुए। उन्होंने कई ग्रन्थ बनाकर अपने सम्प्रदाय का प्रचार किया। तभी से इस सम्प्रदाय का नाम श्री रामानुज सम्प्रदाय हो गया। इस सम्प्रदाय के अनुयायी नारायण की आराधना करते है और लक्ष्मी को अपनी देवी मानते हैं। कावेरी नदी पर ये अपना तीर्थ मानते हैं और त्रिदंड धारण करते हैं।

आचार्य बाड़ा संप्रदाय में ब्रह्मचारी दीक्षा आठ वर्ष से अधिक आयु के बालकों को दी जाती। इसके बाद उन्हें वेद अध्ययन कराया जाता है। सामवेद को ये अपना वेद मानते हैं । आराधना के कई चरणों की परीक्षा के बाद ही उन्हें संन्यास दिया जाता है। उन्हें इस बात की स्वतंत्रता है कि पढ़ाई पूरी होने पर वे चाहे तो गृहस्थ हो सकते हैं परन्तु संन्यासी होने के बाद परिवार से नाता छूट जाता है।

संन्यासियों को पंच संस्कार की दीक्षा दी जाती है- 1. जिनमें शंख चक्र गरम करके हाथ के मूल में स्पर्श कराया जाता है, 2. माथे पर चंदन का त्रिपुंड टीका धारण कराया जाता है 3, सन्तों का भगवान के नाम पर नामकरण किया जाता है 4. तत्पश्चात उन्हें गुरु मंत्र दिया जाता है, एवं 5. यज्ञ संस्कार के बाद उन्हें संप्रदाय की परंपरा से जोड़ा जाता है।

आचार्य बाड़ा संप्रदाय शरणागति के छह सिद्धान्तों पर आधारित है जो निम्नलिखित है –

अनुकूलता का संकल्प-- प्रतिकूलता का वर्जन भगवान रक्षा करेंगे का दृढ़ विश्वास सब कुछ भगवान आत्मान्छिेद कार्यपन्णता
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है आचार्य बाड़ा विशिष्ट द्वैत वाद का उत्कृष्ट उदाहरण है तथा यह सम्प्रदाय अपने और ईश्वर को अलग मान अपने इष्ट की आराधना करता है।
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प्रयागवाल---
इतिहास में प्रसिद्ध तीर्थराज प्रयागराज की प्राचीनता के साथ-साथ प्रयागवालों का भी निकट का सम्बन्ध है। प्रयागराज के अति प्राचीन निवासी होने के कारण इनका नाम प्रयागवाल पड़ा। कुम्भ मेला व माघ मेला में आने वाले तीर्थयात्री प्रयागवाल द्वारा बसाये जाते रहे हैं और वे ही इनका धार्मिक कार्य करते हैं, जिसका विषद् वर्णन मत्स्य पुराण तथा प्रयाग महात्म्य में है। प्रयागराज में आने वाले प्रत्येक तीर्थयात्री का एक विशेष तीर्थ पुरोहित होता है। तीर्थयात्री और पुरोहित का सम्बन्ध गुरु-शिष्य परम्परा का द्योतक है। तीर्थयात्री के धार्मिक गुरु रूप माने जाने वाले इन प्रयागवालों को ही त्रिवेणी क्षेत्र में दान लेने का एक मात्र अधिकार है। जिला गजेटियर में मि० नेमिल ने लिखा है-

जो यात्री प्रयाग में आता है, उसका समस्त प्रकार का धार्मिक कर्मकाण्ड प्रयागवाल ही कराता है। सर्वप्रथम बेनीमाधव भेंट तत्पश्चात् संकल्प कराया जाता है। इसके बाद तीर्थयात्रियों का मुण्डन होता है। मुण्डन के पश्चात् स्नान और फिर पिण्ड दान, शय्यादान, गोदान व भूमिदान कराया जाता है। समस्त प्रकार के दान-उपदान प्रयागवाल द्वारा ही कराये जाते हैं। यात्रियों के परिवार की वंशावली उनसे सम्बन्धित तीर्थ पुरोहित की बही में मिलता है। प्रयागवालों के यजमान क्षेत्र व स्नान दान के आधार पर चलते हैं और यह अपने यजमानों की वंशावली सुरक्षित रखते हैं। तीर्थ पुरोहित अपने क्षेत्र के यजमानों की वंशावली तत्काल खोज लेते हैं। यजमान उनकी मोटी बहियों में अपने पूर्वजों के नाम, हस्ताक्षर आदि देखकर प्रसन्न होते हैं। प्रयागवाल शासन से मामूली शुल्क पर भूमि प्राप्त करता है, उस पर टेन्ट या कुटिया की व्यवस्था करता है। इसमें अपने तीर्थयात्रियों को ठहराता है और इससे दान स्वरूप जो लेता है, उसी से अपनी जीविका का निर्वाह करता है।

प्रयागवालों का संगठन प्रयागवाल सभा के नाम से जाना जाता है। यजमानों को टिकाने के लिए भूमि तथा संगम के निकट प्रयागवाल हेतु भूमि का आवंटन प्रयागवाल सभा के माध्यम से होता है। प्रयागवाल तख्तों की संख्या निश्चित है। प्रयागवाल अपने तख्त पर बहियों का बड़ा सा बक्सा रखते हैं तथा इन्हीं तख्तों पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड कराये जाते हैं। प्रयागवाल पहचान के लिए एक ऊँचे बाँस पर अपना निशान या झंडा लगाते हैं। तीर्थयात्री इसी झंडे को देखकर अपने प्रयागवाल के पास पहुँचते हैं।
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प्रयागराज के निकटवर्ती दर्शनीय स्थल---
विंध्याचल
विंध्याचल गंगा नदी के किनारे मिर्जापुर जिले में स्थित शहर है। यह देवी विंध्यवासिनी का शक्तिपीठ है जो देश में प्रतिष्ठित शक्तिपीठों में से एक है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित देवी विंध्यवासिनी को तत्काल आशीष प्रदान करने वाली देवी माना जाता है। इस स्थान पर देवी को समर्पित अनेकों मंदिर है। यह पवित्र स्थान पर्यटकों को प्राकृति के विभिन्न आश्चर्यों के करीब आने का मौका प्रदान करता है। हालांकि, विंध्याचल धार्मिक उत्साह की हलचल से भरा शहर है, पर यहाँ कोई भी ऐसा शांत पक्ष नहीं है जो पर्यटकों द्वारा छोडने लायक हो। गंगा नदी के तट पर स्थित यह प्रकृति प्रेमियों को अपने हिस्से का हरित परिदृश्य भी प्रस्तुत करता है।

दूरी: 88 कि०मी०

चित्रकूट
चित्रकूट का अर्थ है कई आश्चर्यों से भरी पहाड़ी यह उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के राज्यों में फैले पहाड़ों की उत्तरी विंध्य श्रृंखला में है। भगवान राम ने यहाँ अपने वनवास का बहुत समय बिताया। महाकाव्य रामायण के अनुसार ए चित्रकूट में भगवान राम के भाई भरत ने उनसे मुलाकात की और उनसे अयोध्या लौटने और राज्य पर शासन करने के लिए कहा। यह माना जाता है कि हिंदू धर्म के सर्वोच्च देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश यहाँ अवतार ले चुके हैं। यहाँ कई मंदिर और कई धार्मिक स्थल हैं। इस धरा पर संस्कृति और इतिहास के सुन्दर संयोजन की झलकियाँ हैं। चित्रकूट आध्यात्मिक आश्रय स्थल है। जो लोग अनजानी और अनदेखी जगहों के प्रति रुचि रखते हैं उन यात्रियों की यहाँ लगभग पूरे साल भीड़ रहती है । चित्रकूट देवत्व शांति और प्राकृतिक सौंदर्य का एकदम सही मेल है।

दूरी: 130 कि०मी०

वाराणसी
काशी के रूप में वर्णित वाराणसी या बनारस शहर भारत की समृद्ध विरासत को अपने आप में संजोये हुए है। यह प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृतिए दर्शनए परंपराओं और आध्यात्मिक आचरण का एक आदर्श सम्मिलन केंद्र रहा है। यह सप्त पुरियों यथा प्राचीन भारत के सात पवित्र नगरों में से एक है। बनारस शहर गंगा नदी के किनारे पर स्थित है। गंगा की दो सहायक नदियाँ वरुणा और अस्सी के नाम पर इसका नाम वाराणसी हुआ। काशी. पवित्र शहरए गंगा. पवित्र नदी और शिव . सर्वोच्च भगवानए ये तीनों वाराणसी को एक विशिष्ट स्थान बना देते हैं। आज वाराणसी सांस्कृतिक और पवित्र गतिविधियों का केंद्र है। विशेष रूप से धर्मए दर्शनए योगए आयुर्वेदए ज्योतिषए नृत्य और संगीत सीखने के क्षेत्र में निश्चित रूप से ये नगर अद्वितीय स्थान रखता है। बनारसी रेशमी साड़ी और ज़री के वस्त्र दुनिया भर में अपनी भव्यता के लिए जाने जाते हैं। वाराणसी का हर कोना आश्चर्यों से भरा है। अतः जितना अधिक इसे देखते हैं ए उतना ही इसमें खोते जाते हैं।

दूरी: 120 कि०मी०

अयोध्या
अयोध्या फैज़ाबाद जिले में सरयू नदी के तट पर स्थित है। भारत की गौरवशाली आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाली अयोध्या प्राचीनकाल से ही धर्म और संस्कृति की परम .पावन नगरी के रूप में सम्पूर्ण विश्व में विख्यात रही है। अयोध्या की माहात्म्य व प्रशस्ति वर्णन से इस नगरी के महत्व और लोकप्रियता का स्वयं ही अनुभव हो जाता है। मर्यादा पुरोषत्तम भगवान श्रीराम के जीवन दर्शन से गौरवान्वित इस पावन नगरी के सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र और सुरसरि गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने वाले राजा भगीरथ सिरमौर रहे है। जैन धर्म के प्रणेता श्री आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकर इसी नगरी में जन्मे थे। चीनी यात्री द्वय फाह्यान व ह्वेनसांग के यात्रा .वृत्तान्तों में भी अयोध्या नगरी का उल्लेख मिलता है।

दूरी: 169 कि०मी०


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