मैने एक आदमी से पुछा गुरू कौन है ,वो सेब खा रहा था,उसने एक सेब मेरे हाथ
मैं देकर मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हें बता सकते हो ?
सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं,
उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा
इस बीज में कितने सेब हैं यह भी सोचकर बताओ ?
मैं सोचने लगा एक बीज से एक पेड़ , एक पेड़ से अनेक सेव अनेक सेबो में फिर
तीन तीन बीज हर बीज से फिर एक एक
पेड़ और यह अनवरत क्रम!
उसने मुस्कुराते हुए बोले : बस इसी तरह परमात्मा की कृपा हमें
प्राप्त होती रहती है , बस उसकी भक्ति का एक
बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है।
गुरू एक तेज हे जिनके आते ही
सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हे।
गुरू वो मृदंग है जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते
है
गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे।
गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मेमिलती है तो
भवसागर पार हो जाते है।
गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे
प्राण से बहती हे।
गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता है।
गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरकने
लगता है।
गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई
कभी प्यासा नही।
गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही
सोहम नाद की झलक मिलती है।
गुरू वो कृपा ही है जो सिर्फ कुछ
सद शिष्यो को विशेष रूप मे
मिलती हे और कुछ पाकर भी
समझ नही पाते।
गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।
गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल
तक रहती हे।
गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की
ज़रूरत नही पड़ती
मैं देकर मुझसे पूछा इसमें कितने बीज हें बता सकते हो ?
सेब काटकर मैंने गिनकर कहा तीन बीज हैं,
उसने एक बीज अपने हाथ में लिया और फिर पूछा
इस बीज में कितने सेब हैं यह भी सोचकर बताओ ?
मैं सोचने लगा एक बीज से एक पेड़ , एक पेड़ से अनेक सेव अनेक सेबो में फिर
तीन तीन बीज हर बीज से फिर एक एक
पेड़ और यह अनवरत क्रम!
उसने मुस्कुराते हुए बोले : बस इसी तरह परमात्मा की कृपा हमें
प्राप्त होती रहती है , बस उसकी भक्ति का एक
बीज अपने मन में लगा लेने की ज़रूरत है।
गुरू एक तेज हे जिनके आते ही
सारे सन्शय के अंधकार खतम हो जाते हे।
गुरू वो मृदंग है जिसके बजते ही अनाहद नाद सुनने शुरू हो जाते
है
गुरू वो ज्ञान हे जिसके मिलते ही पांचो शरीर एक हो जाते हे।
गुरू वो दीक्षा हे जो सही मायने मेमिलती है तो
भवसागर पार हो जाते है।
गुरू वो नदी हे जो निरंतर हमारे
प्राण से बहती हे।
गुरू वो सत चित आनंद हे जो हमे हमारी पहचान देता है।
गुरू वो बासुरी हे जिसके बजते ही अंग अंग थीरकने
लगता है।
गुरू वो अमृत हे जिसे पीके कोई
कभी प्यासा नही।
गुरू वो मृदन्ग हे जिसे बजाते ही
सोहम नाद की झलक मिलती है।
गुरू वो कृपा ही है जो सिर्फ कुछ
सद शिष्यो को विशेष रूप मे
मिलती हे और कुछ पाकर भी
समझ नही पाते।
गुरू वो खजाना हे जो अनमोल हे।
गुरू वो समाधि हे जो चिरकाल
तक रहती हे।
गुरू वो प्रसाद हे जिसके भाग्य मे हो उसे कभी कुछ मांगने की
ज़रूरत नही पड़ती