स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि साधक दो प्रकार के होते हैं-एक बंदर के बच्चे के समान और दूसरा बिल्ली के बच्चे के समान। बंदर का बच्चा स्वयं ही मां को पकड़े रहता है। मां जहां-जहां जाती है, वह उसके साथ चिपटा रहता है। मां को बच्चे की कोई खास चिंता नहीं रहती। वह आश्वस्त रहती है कि बच्चा उसे मजबूती से पकड़े हुए हैं। योग, ध्यान तंत्र, मंत्र एवं तपस्या के माध्यम से साधना करने वाले साधक इसी वर्ग के होते हैं। वह सोचते हैं कि अधिक से अधिक जप, तप, ध्यान आदि कर तपस्या के मार्ग से भगवान को पा लिया जाएगा। ऐसे साधक भगवान को पाने का खुद जतन करते हैं, लक्ष्य तय करते हैं और उस पर चलते हैं। उन्हें अपने ज्ञान और जप, तप, ध्यान आदि पर भरोसा रहता है कि इससे वह एक न एक दिन भगवान को पा ही लेंगे। इस दौरान वह सिद्धियों को भी पाने का जतन करते हैं।
दूसरी ओर बिल्ली का बच्चा खुद अपनी मां को नहीं पकड़ता है। वह तो बस पड़ा-पड़ा म्याऊं-म्याऊं कर मां को पुकारता रहता है। उसकी मां चाहे जहां, जिस स्थिति में उसे रख दे, वह मां पर विश्वास कर वैसा ही पड़ा रहता है। अत: मां को ही उसकी सारी चिंता करना पड़ती है। ऐसे साधक भक्त कहलाते हैं। वह भगवान को पाने के लिए कोई जप, ध्यान, भजन-कीर्तन आदि का कोई हिसाब-किताब नहीं रखते हैं। उन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहता कि कितना जप-तप करके क्या मिलेगा? कैसे सिद्धि मिलेगी और कैसे ईश्वर की प्राप्ति होगी। वह तो सिर्फ भगवान पर भरोसा करते हैं और उनकी भक्ति करते हैं। जब परेशान होते हैं और भगवान की याद आती है तो व्याकुल होकर भजन-कीर्तन या सीधे ही रो-रोकर उन्हें पुकारते हैं। भगवान उनका रोना नहीं सुन पाते और खुद उनके पास पहुंच जाते है।
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