एक मूर्तिकार उच्च कोटि की ऐसी सजीव मूर्तियाँ बनाता था कि उन्हें देखने से कोई बता ही नहीं सकता था कि ये मूर्तियाँ है लेकिन उस मूर्तिकार को अपनी कला पर बहुत घमंड था | एक दिन जब उसे ख्याल आया कि उसकी मृत्यु होने वाली है तो वो परेशानी में पड़ गया | मृत्यु से बचने के उपाय खोजने में लग गया | तो उसके दिमाग में एक खुराफात वाला idea आया और उसने अपने जैसी ग्यारह हु बहु मूर्तियाँ बनाई और ऐसा करके वो खुद यमराज को धोखा देने के लिए जाकर उन मूर्तियों के बीच बैठ गया |
यमराज जब उसे लेने आये तो एक जेसी ग्यारह आकृतियाँ देखकर हैरान हुए और उलझन में पड़ गये कि अब क्या किया जाएँ क्योंकि पता ही नहीं लग रहा था इन ग्यारह में से कौन असली है कौन नकली | वे इसमें से वास्तविक व्यक्ति को नहीं पहचान पायें और इसी वजह से वो अचम्भित थे |
यमराज सोच रहे थे कि अगर मूर्तिकार के प्राण नहीं ले पाए तो सृष्टि का नियम टूट जायेगा और अगर सत्य को परखने के लिए मूर्तियाँ तोड़ते है तो कला का भी अपमान होगा इसलिए वो सोच ही रहे थे कि उन्हें मानव के स्वाभाव की सबसे बड़ी कमजोरी अहंकार की बात स्मरण हो आई | इस पर यमराज ने चालाकी दिखाते हुए कहा कि ‘ बनाने वाले ने मुर्तियां तो अति सुन्दर बनायीं है लेकिन काश मैं इन मूर्तियों को बनाने वाले से मिल पाता तो उसे बताता कि इनको बनाने में एक त्रुटी तो रह ही गयी है ‘ इस पर मूर्तिकार के मन में अहंकार जाग उठा और वो बोल गया कि कैसी त्रुटी इनको बनाने सीखने में तो मैंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है इसलिए ऐसा नहीं हो सकता कि इनको बनाने में कोई त्रुटी रह गयी हो | इस पर यमराज ने फ़ौरन उसका हाथ पकड़ लिया और उसे कहा कि यही तो एक त्रुटी कर गये तुम अपने अहंकार से क्योंकि मूर्तियाँ बोला नहीं करती बंधू |