पवित्रता का महत्व

पवित्रता को अंग्रेजी में Purity कह सकते हैं। अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' के उपांगों के अंतर्गत प्रथम 'शौच' का जीवन में बहुत महत्व है। शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ
शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है। शौच का अर्थ मलिनता को बाहर निकालना भी है। दरअसल शौच एक ऐसा शब्द है जिसे उपरोक्त शब्दों का समानार्थी शब्द नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें बाहरी और भीतरी पवित्रता का अर्थ एक साथ प्रतिध्वनित होता है। अन्य शब्दों की अपेक्षा इसका अर्थ व्यापक है।

शरीर और मन की पवित्रता ही शौच है। पवित्रता दो प्रकार की होती है- बाहरी और भीतरी। बाहरी और भीतरी शौच के द्वारा ही जीवन या मोक्ष पथ पर सहजता से आगे बड़ा जा सकता है अन्यथा नहीं। शौच के अभाव के चलते शरीर और मन रोग और शोक से ग्रस्त हो जाता है।
बाहरी : बाहरी या शारीरिक शुद्धता भी दो प्रकार की होती है। पहली में शरीर को बाहर से शुद्ध किया जाता है। इसमें मिट्टी, उबटन, त्रिफला, नीम आदि लगाकर निर्मल जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है। दूसरी शरीर के अंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए योग में कई उपाय बताए गए है- जैसे शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि।

भीतरी : भीतरी या मानसिक शुद्धता प्राप्त करने के लिए दो तरीके हैं। पहला मन के भाव व विचारों को समझते रहने से। जैसे- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को त्यागने से मन की शुद्धि होती है। इससे सत्य आचरण का जन्म होता है।

ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिभान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। अर्थात व्यक्ति स्वयं के समक्ष सत्य और ईमानदार बना रहता है। इससे जाग्रति का जन्म होता है। विचारों के असर की क्षमता बढ़ती है। दूसरा तरीका है आहार-विहार पर संयम रखते हुए यम और प्राणायाम का पालन करना।
मूलत: शौच का तात्पर्य है पवित्र हो जाओ, तो आधा संकट यूँ ही कटा समझो। योग में पवित्रता का बहुत महत्व है। शरीर के सभी छिद्रों को संध्या वंदन से पूर्व पाक-साफ करना भी शौच है। मंदिर में प्रवेश कराने से पहले जिन्होंने शौच-आचमन की है वे धर्म और मंदिर का सम्मान करना जानते हैं।

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