संन्यासी

कसाई के पीछे घिसटती जा रही बकरी ने सामने से आ रहे संन्यासी को देखा तो उसकी उम्मीद बढ़ी. मौत आंखों में लिए वह फरियाद करने लगी- ‘महाराज ! मेरे छोटे-छोटे मेमने हैं. आप इस कसाई से मेरी प्राण-रक्षा करें.
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मैं जब तक जियूंगी,अपने बच्चों के हिस्से का दूध आपको पिलाती रहूंगी.’ बकरी की करुण पुकार का संन्यासी पर कोई असर न पड़ा. वह निर्लिप्त भाव से बोला- ‘मूर्ख, बकरी क्या तू नहीं जानती कि मैं एक संन्यासी हूं.
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जीवन-मृत्यु, हर्ष-शोक, मोह-माया से परे. हर प्राणी को एक न एक दिन तो मरना ही है. समझ ले कि तेरी मौत इस कसाई के हाथों लिखी है. यदि यह पाप करेगा तो ईश्वर इसे भी दंडित करेगा.
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‘मेरे बिना मेरे मेमने जीते-जी मर जाएंगे…’ बकरी रोने लगी. 
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‘नादान, रोने से अच्छा है कि तू परमात्मा का नाम ले. याद रख, मृत्यु नए जीवन का द्वार है. सांसारिक रिश्ते-नाते प्राणी के मोह का परिणाम हैं. मोह माया से उपजता है. माया विकारों की जननी है. विकार आत्मा को भरमाए रखते हैं.’
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बकरी निराश हो गई. संन्यासी के पीछे आ रहे कुत्ते से रहा न गया.
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उसने पूछा- ‘संन्यासी महाराज, क्या आप मोह-माया से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं ?’
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लपककर संन्यासी ने जवाब दिया- ‘बिलकुल, भरा-पूरा परिवार था मेरा. सुंदर पत्नी, सुशील भाई-बहन, माता-पिता, चाचा-ताऊ, बेटा-बेटी. बेशुमार जमीन-जायदाद… मैं एक ही झटके में सब कुछ छोड़कर परमात्मा की शरण में चला आ आया.
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सांसारिक प्रलोभनों से बहुत ऊपर… सब कुछ छोड़ आया हूं. मोह-माया का यह निरर्थक संसार छोड़ आया हूं. जैसे कीचड़ में कमल…’ संन्यासी डींग मारने लगा.
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कुत्ते ने समझाया- आप चाहें तो बकरी की प्राणरक्षा कर सकते हैं. कसाई आपकी बात नहीं टालेगा. एक जीव की रक्षा हो जाए तो कितना उत्तम हो.’
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संन्यासी ने कुत्ते को जीवन का सार समझाना शुरू कर दिया- ‘मौत तो निश्चित ही है, आज नहीं तो कल, हर प्राणी को मरना है. इसकी चिंता में व्यर्थ स्वयं को कष्ट देता है जीव.’ संन्यासी को लग रहा था कि वह उसे संसार के मोह-माया से मुक्त कर रहा है.
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अभी संन्यासी अपना ज्ञान बघार ही रहा था कि तभी सामने एक काला भुजंग नाग फन फैलाए दिखाई पड़ा. वह संन्यासी पर न जाने क्यों कुपित था. मानों ठान रखा हो कि आज तो तूझे डंसूगा ही.
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सांप को देखकर संन्यासी के पसीने छूटने लगे. मोह-मुक्ति का प्रवचन देने वाले संन्यासी ने कुत्ते की ओर मदद के लिए देखा. कुत्ते की हंसी छूट गई.
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‘संन्यासी महोदय मृत्यु तो नए जीवन का द्वार है. उसको एक न एक दिन तो आना ही है, फिर चिंता क्या ? कुत्ते ने संन्यासी के वचन दोहरा दिए.
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‘इस नाग से मुझे बचाओ.’ अपना ही उपदेश भूलकर संन्यासी गिड़गिड़ाने लगा. मगर कुत्ते ने उसकी ओर ध्यान न दिया.
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कुत्ते ने चुटकी ली- ‘आप अभी यमराज से बातें करें. जीना तो बकरी चाहती है. इससे पहले कि कसाई उसको लेकर दूर निकल जाए, मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है.
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इतना कहते हुए कुत्ता छलांग लगाकर नाग के दूसरी ओर पहुंच गया. फिर दौड़ते हुए कसाई के पास पहुंचा और उस पर टूट पड़ा.
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आकस्मिक हमले से कसाई संभल नहीं पाया और घबराकर इधर-उधर भागने लगा. बकरी की पकड़ ढीली हुई तो वह जंगल में गायब हो गई.
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कसाई से निपटने के बाद कुत्ते ने संन्यासी की ओर देखा. संन्यासी अभी भी ‘मौत’ के आगे कांप रहा था.
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कुत्ते का मन हुआ कि संन्यासी को उसके हाल पर छोड़कर आगे बढ़ जाए लेकिन मन नहीं माना. वह दौड़कर विषधर के पीछे पहुंचा और पूंछ पकड़ कर झाड़ियों की ओर उछाल दिया.
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संन्यासी की जान में जान आई. वह आभार से भरे नेत्रों से कुत्ते को देखने लगा.
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कुत्ता बोला- ‘महाराज, जहां तक मैं समझता हूं, मौत से वही ज्यादा डरते हैं, जो केवल अपने लिए जीते हैं.
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जीवन का समय-समय पर आत्म मूल्यांकन बहुत जरूरी है. हम संसार से छल कर सकते हैं, छुपा सकते हैं स्वयं से नहीं. इसलिए अपने हर कार्य को अपने अंतर्मन की कसौटी पर कसते रहना चाहिए.
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जो नियमित रूप से ऐसा करते रहते हैं उनमें उनके अंदर का ईश्वर जाग्रत रहता है. जिस दिन हम स्वयं से मुंह फेरने लगते हैं उस दिन से पतन का आरंभ हो जाता है.
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जो सिर्फ अपनी चिंता करें वैसे इंसान और पशु में क्या फर्क रहा. पशु भी दूसरों की चिंता कर लेते हैं.
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गेरुआ पहनकर निकल जाने या कंठी माला डालकर प्रभु नाम जपने से कोई प्रभु का प्रिय नहीं हो जाता. जिसके मन में दया और करूणा नहीं उसे तो ईश्वर भी नहीं पूछते.
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