एक पंडितजी बड़े कर्मकांडी थे. पूजा-पाठ, प्रभु के ध्यान में कोई कमी तो न थी लेकिन धन का मोह त्याग नहीं पा रहे थे. उन्होंने चिंतामणि प्राप्त करने के लिए कठिन अनुष्ठान किया.
चिंतामणि वह मणि है जो सारी चिंताएं हरती है और इच्छित वस्तु प्रदान करती है. अनुष्ठान पूरा हो चुका था. एक दिन वह रास्ते में कहीं जा रहे थे तो उन्हें दैवयोग से एक चमकती मणि दिखी.
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सड़क के किनारे भला कहीं मणि पड़ी मिलती है. इस भाव से पंडितजी ने विचार करना शुरू किया. विचार शुरू हुआ तो एक के बाद एक जो भी विचार आए सारे नकारात्मक आते रहे.
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उन्हें लगा किसी पड़ोसी से उनके अनुष्ठान का मजाक उड़ाने के लिए कहीं से सुंदर कांच लाकर रास्ते में रख दिया है. इसे लेने से तो समाज में परिहास हो जाएगा. उन्होंने मणि वहीं फेंक दी और नजर बचाकर निकल गए.
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पीछे से एक आदमी आ रहा था. उसने मणि उठा ली. पहली नजर में उसे लग गया कि यह मणि है. उसके पास जो भी थोड़ी-बहुत संपत्ति थी वह उसने औरों को दान कर दी और मणि लेकर वन की ओर निकल गया.
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वह उस मणि से अपनी पसंद का नगर बसाने की अभिलाषा लिए बढ़ रहा था. उसने अपने नगर के भवनों और उसमें उपलब्ध सुख-सुविधाओं की योजना बनाई थी. इन्हीं ख्यालों में खोया वह वन को पार कर गया.
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उसने मणि को एक बार फिर से निहारा. अचानक उसे ख्याल आया कि जिस मणि के सहारे वह इतने सपने बुन रहा है, वह असली तो है न ! कहीं कोई कांच का टुकड़ा तो नहीं.
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सोचने भर की देर थी. उसके हाथ कांपने लगे और मणि छूटकर गिरी और चूर हो गई. मणि नहीं उसके सपने चूर हुए थे. उसके पास तो अब गुजारे का भी धन न था. वह परेशान हाल वहीं बैठ गया.
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तभी मणि बोल पड़ी- तुम्हारी किस्मत से मैं तुम्हें मिल गई लेकिन तुमने मुझे बिना किसी कठिन प्रयास के ही प्राप्त कर लिया था इसलिए तुम्हारे मन में शंका हुई. तुमने मेरा मूल्य नहीं समझा. चिंतामणि तो चिंता हरती है, सो मैं बिखर गई.
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ब्राह्मण ने चिंतामणि प्राप्त करने के लिए कठिन प्रयास किया लेकिन साथ ही साथ वह अपने प्रयास का परिणाम निकलने की संभावना को लेकर भी आशंकित रहा.
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जब वह पहले ही मानकर चल रहा था कि उसकी अभीष्ट वस्तु मिल जाना संभव नहीं है इसलिए उसने हाथ आई चीज गंवा दी. जिसे बिना प्रयास के मिली उसे संदेह हुआ कि कहीं यह रास्ते का पत्थर तो नहीं. दोनों ने किस्मत के दरवाजे अपने हाथों बंद किए.
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यह सही है कि बिना प्रयास के मिली वस्तु का मोल नहीं रह जाता.
चिंतामणि वह मणि है जो सारी चिंताएं हरती है और इच्छित वस्तु प्रदान करती है. अनुष्ठान पूरा हो चुका था. एक दिन वह रास्ते में कहीं जा रहे थे तो उन्हें दैवयोग से एक चमकती मणि दिखी.
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सड़क के किनारे भला कहीं मणि पड़ी मिलती है. इस भाव से पंडितजी ने विचार करना शुरू किया. विचार शुरू हुआ तो एक के बाद एक जो भी विचार आए सारे नकारात्मक आते रहे.
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उन्हें लगा किसी पड़ोसी से उनके अनुष्ठान का मजाक उड़ाने के लिए कहीं से सुंदर कांच लाकर रास्ते में रख दिया है. इसे लेने से तो समाज में परिहास हो जाएगा. उन्होंने मणि वहीं फेंक दी और नजर बचाकर निकल गए.
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पीछे से एक आदमी आ रहा था. उसने मणि उठा ली. पहली नजर में उसे लग गया कि यह मणि है. उसके पास जो भी थोड़ी-बहुत संपत्ति थी वह उसने औरों को दान कर दी और मणि लेकर वन की ओर निकल गया.
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वह उस मणि से अपनी पसंद का नगर बसाने की अभिलाषा लिए बढ़ रहा था. उसने अपने नगर के भवनों और उसमें उपलब्ध सुख-सुविधाओं की योजना बनाई थी. इन्हीं ख्यालों में खोया वह वन को पार कर गया.
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उसने मणि को एक बार फिर से निहारा. अचानक उसे ख्याल आया कि जिस मणि के सहारे वह इतने सपने बुन रहा है, वह असली तो है न ! कहीं कोई कांच का टुकड़ा तो नहीं.
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सोचने भर की देर थी. उसके हाथ कांपने लगे और मणि छूटकर गिरी और चूर हो गई. मणि नहीं उसके सपने चूर हुए थे. उसके पास तो अब गुजारे का भी धन न था. वह परेशान हाल वहीं बैठ गया.
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तभी मणि बोल पड़ी- तुम्हारी किस्मत से मैं तुम्हें मिल गई लेकिन तुमने मुझे बिना किसी कठिन प्रयास के ही प्राप्त कर लिया था इसलिए तुम्हारे मन में शंका हुई. तुमने मेरा मूल्य नहीं समझा. चिंतामणि तो चिंता हरती है, सो मैं बिखर गई.
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ब्राह्मण ने चिंतामणि प्राप्त करने के लिए कठिन प्रयास किया लेकिन साथ ही साथ वह अपने प्रयास का परिणाम निकलने की संभावना को लेकर भी आशंकित रहा.
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जब वह पहले ही मानकर चल रहा था कि उसकी अभीष्ट वस्तु मिल जाना संभव नहीं है इसलिए उसने हाथ आई चीज गंवा दी. जिसे बिना प्रयास के मिली उसे संदेह हुआ कि कहीं यह रास्ते का पत्थर तो नहीं. दोनों ने किस्मत के दरवाजे अपने हाथों बंद किए.
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यह सही है कि बिना प्रयास के मिली वस्तु का मोल नहीं रह जाता.
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