भगवान बुद्ध


एक दिन एक जिज्ञासु व्यक्ति मौलुंकपुत्र भगवान बुद्ध के पास आया। वह स्वयं विद्वान था और अपने पांच सौ शिष्यों के साथ आया था। उसके पास बुद्ध से पूछने के लिए ढेरों प्रश्न थे। बुद्ध ने उसके चेहरे की तरफ देखा और कहा, मौलुंकपुत्र, यदि तुम मेरी एक शर्त पूरी करो, तो मैं तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर दे सकता हूँ। शर्त यह है कि तुम एक वर्ष तक ध्यान करो और मौन रहो। जब तुम्हारे भीतर का शोरगुल थम जाए, तब तुम जो भी पूछोगे, मैं उसका उत्तर दूंगा। यह मैं वचन देता हूँ।
मौलुंकपुत्र चितित हुआ। एक वर्ष केवल मौन रहना होगा। फिर कौन जाने कि वे उत्तर सही भी होंगे या नहीं। कहीं एक वर्ष बेकार न चला जाए। वह दुविधा में पड़ गया। वह थोड़ा झिझक भी रहा था। ऐसी शर्त मानने में उसे खतरा दिख रहा था।
अंतत: मौलुंकपुत्र ने बुद्ध की बात मान ली। एक वर्ष बीता, मौलुंकपुत्र ध्यान में उतर गया। वह मौन होता गया। उसके भीतर का कोलाहल थम गया। वह बिलकुल भूल गया कि कब एक वर्ष बीत गया। जब प्रश्न ही न रहें, तो कौन फिक्र करता है उत्तरों की?
एक दिन अचानक बुद्ध ने पूछा, 'यह अंतिम दिन है वर्ष का। एक वर्ष पहले इसी दिन तुम यहा आए थे। मैंने तुम्हें वचन दिया था कि एक वर्ष बाद तुम जो पूछोगे, मैं उत्तर दूंगा। मैं अब उत्तर देने को तैयार हूँ। मौलुंकपुत्र हंसने लगा। उसने कहा, भगवन अब कोई प्रश्न ही शेष नहीं बचा पूछने के लिए। अब मैं आपसे क्या पूछूं? मेरे भीतर का कोलाहल थम गया है और प्रश्न निरर्थक हो गए हैं।
मन की एक अवस्था है, जहाँ केवल प्रश्न होते हैं और मन की एक दूसरी अवस्था है, जहाँ केवल उत्तर होते हैं। और वे कभी साथ-साथ नहीं होते। यदि तुम अभी भी पूछ रहे हो, तो तुम उत्तर नहीं ग्रहण कर सकते। मैं उत्तर दे सकता हूँ, लेकिन तुम उसे ले नहीं सकते। यदि तुम्हारे भीतर प्रश्न उठने बद हो गए हैं, तो कोई जरूरत नहीं है उत्तर देने की। तुम्हें स्वत: उत्तर मिल जाता है अन्यथा किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है।

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