गाँव के आखिरी कोने में दो वृद्धाएँ रहती थीं, दोनों के घर की दीवार एक थी। घर के सामने छोटे से टीले पर साधु-संतों का एक आश्रम था। दोनों बुढियां आश्रम में काम करने जातीं। संतों की कृपा से उन्हें कभी अन्न-वस्त्र का अभाव न हुआ।
एक साथ रहतीं, एक साथ काम करतीं, फिर भी दोनों के स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था। एक उदार थी, देने योग्य तो उसके पास नहीं के बराबर ही था, परन्तु अपने-जैसे गरीबों को समय-समय पर कुछ-न-कुछ जरूर दिया करती थी। दूसरी कंजूस थी, देने योग्य उसके पास बहुत कुछ एकत्रित हुआ था, परन्तु कभी किसी को कुछ भी नहीं देती थी।
एक संध्या को गगन में बादल गरजने लगे, बिजली चमकने लगी और मूसलाधार जल-वृष्टि आरम्भ हुई। दोनों बुढियां अपने-अपने घरों में घुस चुकी थीं। अचानक कंजूस बुढ़िया के दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। बुढिया भोजन करने बैठी ही थी। शायद कोई तूफान में फँसा हुआ मुसाफिर होगा, जो भोजन में हिस्सा चाहेगा -- ऐसा सोचकर बुढ़िया ने जल्दी-जल्दी जितना खा सकती थी, खा लिया। जो बचा उसको ढक दिया और तब निवृत होकर दरवाजा खोला। खोलते-खोलते बोली -- रात-दिन न जाने कहाँ से ऐसी आफत चली आती है, पलभर भी आराम नहीं करने देती।
परन्तु ज्यों ही उसने दरवाजा खोला -- एक सौम्य शान्त साधु की मूर्ति उसे दिखाई पड़ी। बुढ़िया स्तब्ध हो गयी। साधु ने वर्षा से बचने के लिए सिरपर एक मोटी बोरी डाल रखी थी।
भीगी बोरी से पानी की बूँदें टपक रही थीं। रोटी का एक टुकड़ा मिलेगा मैया ? साधु ने मौन तोड़ा। बुढ़िया जानती थी कि ऐसे साधु-संत जरा-सी सेवा के बदले बहुत कुछ दे जाते हैं, इसलिए उसने तुरंत ही भोजन की थाली हाजिर की। बदले में बहुत मिलने की आशा हो, तब थोड़ा-सा दे देने में बुढ़िया भला क्यों हिचकिचाने लगी ?
साधु भोजन करने बैठे। वृद्धा साधु के मुँह की और देखती रही। साधु के चेहरे पर एक अद्वितीय तेज झलक रहा था। आश्रम के सभी साधुओं को वह पहचानती थी, पर इनको कभी न देखा था। इनके चेहरे पर ऐसी सुकोमल नम्रता और पवित्रता थी की प्रथम दृष्टि में ही इनके अन्तस्तल का आर-पार देखा जा सकता था। पर वृद्धा को यह देखने का अवकाश कहाँ ? साधू कौन है ? उससे अधिक साधु क्या लाया है ? यह जानने के लिए वह आतुर थी !
'कितना भयंकर तूफान है' -- साधु बोले।
'धनवानों की तो चिन्ता नहीं, पर बेचारे निरीह निर्धनों का क्या होगा ? अनाथों का कौन ? यदि संसार में साधु-संतों की कृपादृष्टि न होती तो मुझ- जैसी गरीब की क्या दशा होती भगवन् !' वृद्धा ने कहा।
'इसीलिए तो मैया ! मैं तुम्हारे दरवाजे पर आया हूँ। जो भूखे को अन्न और वस्त्रहीन को वस्त्र देता है, वह धन्य है, स्वर्ग की सभी सीढियाँ उसके पास है ' साधु ने कहा -- उनके मुहँ पर दीप्ती दिखी।
'क्या कहते हैं उसके भाग्य को ?' साधु उदारता से कुछ दे जायेगा, इस आशा में हर्षित हो बुढ़िया बोली।
'माँ तेरे भाग्य की बलिहारी है, तुझसे भी अधिक गरीब और दुःखी लोगों के लिये मदद माँगने मैं यहाँ आया हूँ। दो अपरिचित महिलाएँ आश्रम में आश्रय-हेतु आयी हैं, बिजली गिरने से दोनों के घर गिरकर ढेर हो गये हैं। घरका सब कुछ स्वाहा हो गया है। बेचारी निष्किंचन और निराधार बुढ़िया ........ आश्रम के सभी खण्ड ऐसे ही निराश्रितों से भर गये हैं। फिर भी हमने उन्हें आश्रय दिया है, परन्तु पहनने-ओढ़ने का हमारे पास कुछ भी तो नहीं है ..... तुम यदि आजकी रातभर के लिए कुछ ओढने-बिछाने को देदो तो सुबह जब कुछ लोग चले जायेंगे, हम तुम्हें लौटा देंगे।
तुम्हारा तो सुरक्षित घर है, इसलिए कुछ-न-कुछ जरूर दे सकोगी।' साधु ने मदद माँगी, बुढ़िया निराश हो गयी, उसकी आवाज मन्द हो गयी -- 'महाराज ! कुछ दूर पधारते तो धनवानों की कहाँ कमी थी, मुझ गरीब का ही घर आपको मिला, मेरी हालत ही दान लेने जैसी है, इसका भी तो ख्याल किया होता।'
'एक कम्बल भी न दे सकोगी माई ? वे बेचारी ठण्ड से काँप रही हैं।'
बुढ़िया चौंकी, अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे एक सुन्दर गरम कम्बल मिला था, वह कमरे में गयी और सोचने लगी। 'नया कम्बल तो कैसे दे दिया जाये।' उसने पुराना कम्बल उठाया और उसे तह करके रख दिया। पुराने कम्बल के भी उसे अनेक गुण याद आ रहे थे -- 'पुरे सात साल से इसका उपयोग करती हूँ, फिर भी अभी वैसा ही है, वे भटकती बुढ़िया न जाने कहाँ से आयी होगी, नींद में लात मारकर मेरे कम्बल को न जाने कैसा कर डालेंगी ?' भटकने वालों को क्या भान रहेगा ? जिन्दगी में कभी कम्बल देखा हो तब न ....वे तो बोरियों पर सोने वाली ....!'
ज्यों-ज्यों वह सोचती गयी, त्यों-त्यों उसे अपना अनुमान सच्चा प्रतीत होने लगा। अचानक उसे याद आया कि ऐसे लोगों में बहुत से रोगी होते हैं, उनके लिए कम्बल कैसे दिया जाये ? दो साल पहले कुछ रोगी आये थे, उन्होंने जिन वस्तुओं का उपयोग किया था, उन्हें जला दिया गया था। कहीं मेरे कम्बल की भी वही दशा हो तो ! इतना सुन्दर कम्बल कैसे जला डाला जाये, अभी तो यह दस साल और काम दे सकेगा। फिर एक पतली रजाई उठाई, लेकिन तुरंत ही न ....न ....न यह तो मेरे बाप के घर की है, कहकर रख दी। एक पुरानी जीर्ण चद्दर को जो दीवार पर लटक रही थी, लेकर समेटने लगी। परन्तु फिर सोचा ऐरे-गैरे दिनों में यही चद्दर कम्बल का काम देती है, इसे कैसे दे दूँ ? दुःखित ह्रदय से एक दूसरी जीर्ण चादर लेकर वह बहार आयी। 'आज यह ऐसी दिखती है, पर जब खरीदी उस समय बहुत ही सुन्दर थी, आठ आने से कम तो नहीं लगे होंगे।'
'इससे अधिक आप कुछ भी नहीं दे सकतीं ?' साधु ने चादर को कन्धे पर डालते हुए पूछा। 'हाय-हाय मेरे घर में देने योग्य क्या है ? अब क्या दूँ ? सारी रात मुझे भी तो अब ठण्ड में ठिठुर-ठिठुर कर काटनी पड़ेगी।'
'बेचारी औरतें ठण्ड में ठिठुरती हैं। तुम्हारी तरह ही वृद्धा हैं। सब कुछ गँवा बैठी हैं। कुछ तो देदो।'
किन्तु बुढ़िया के पत्थर-दिल पर कोई प्रभाव न पड़ा। साधु वहाँ से निकलकर पासकी दूसरी बुढ़िया के घर गये । यहाँ भी उन्होंने वही बात कही। निराधार वृद्धाओं की हालत सुनकर वृद्धा का ह्रदय भर आया। ठीक ही है ' घायल की गति घायल जाने।' वह बोली -- 'भगवान् की दया से मुझे अभी ही यह नया कम्बल मिला है, लीजिये, ले जाइये' और उसने कम्बल दे दिया। तुरंत ही बोली -- 'यह पुराना भी लेते जाइये, काम आयेगा, यह रजाई भी और यह चादर भी यहाँ किस काम आयेगी ? एक रात तो मैं किसी तरह भी काट लूंगी, बेचारी वे औरतें ठण्ड से ठिठुर रही होंगी। मेरे कपड़े भी उनके काम आयेंगे, इन्हें भी ले जाइये।' बुढ़िया ने जितना दिया, उतना साधु ने चुपचाप ले लिया। उनके मुख पर उज्जवल मुस्कान लहरा रही था।
'लीजिये, यह भी ले जाइये और यह भी, रात में कोई बेचारा भूला-भटका आ जायेगा तो काम आयेगा। मैं तो बोरी पर ही रात काट लूंगी।' बुढ़िया ने करीब-करीब घर का सब कुछ दे दिया।
साधु के जाने के बाद आँधी अधीर हो उठी, नभ में भयंकर गर्जन होने लगी, प्रलयंकारी पवन चलने लगा, वृक्ष धड़ाधड़ गिरने लगे। अचानक एक भयंकर बिजली चमकी और उन दोनों वृद्धाओं के मकानों पर गिरकर जमीन में उतर गयी। वृद्धाएँ बच गयीं, परन्तु दोनों के घर और घर का सब कुछ स्वाहा हो गया। दुःख से बिलखती दोनों वृद्धाएँ तूफ़ान में ठोकरें खाने लगीं।
'इधर चलिए वहां मेरे आश्रम में' -- उन्हीं साधु की सुमुधुर वाणी सुनाई पड़ी। दोनों का हाथ पकड़कर साधु उनको आश्रम में ले आये। दीवार के पास छप्पर के नीचे उदार वृद्धा की दी हुई सभी वस्तुएं ज्यों-की-त्यों रखी हुई थीं।
'यह तेरा है और तुझे वापस मिलता है, माई !' साधु ने कहा ! 'तूने जो दान दिया वह खुद को ही दिया है।' परन्तु उन दोनों वृद्धाओं का क्या हुआ ? उदार वृद्धा ने चिन्तित हो पूछा।
'वे दोनों तुम ही हो, तुमने उदार बनकर निराश्रितों के लिए जो कुछ बचाया, वही भगवान् ने तुम्हारे लिए बचाया है।' -- साधु बोले।
फिर दूसरी बुढ़िया की ओर देखकर उन्होंने जीर्ण चादर देते हुए कहा -- 'तेरा सब कुछ नष्ट हो गया, सिर्फ इतना ही बचा है; क्योंकि इतना ही तुने बचाया था। आज ऐसी दिखती है, जब ली थी तब बहुत सुन्दर थी, आठ आने से कम नहीं लगा होगा।'
कंजूस बुढ़िया कुछ न बोली। सिर्फ मुँह निचा किये रही।
साधु सिर्फ धीरे से हँसे, बिजली की एक चमक ने रात्रि के अंधकार में साधु की सारी काया को तेजोमय बना डाला।
एक साथ रहतीं, एक साथ काम करतीं, फिर भी दोनों के स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था। एक उदार थी, देने योग्य तो उसके पास नहीं के बराबर ही था, परन्तु अपने-जैसे गरीबों को समय-समय पर कुछ-न-कुछ जरूर दिया करती थी। दूसरी कंजूस थी, देने योग्य उसके पास बहुत कुछ एकत्रित हुआ था, परन्तु कभी किसी को कुछ भी नहीं देती थी।
एक संध्या को गगन में बादल गरजने लगे, बिजली चमकने लगी और मूसलाधार जल-वृष्टि आरम्भ हुई। दोनों बुढियां अपने-अपने घरों में घुस चुकी थीं। अचानक कंजूस बुढ़िया के दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। बुढिया भोजन करने बैठी ही थी। शायद कोई तूफान में फँसा हुआ मुसाफिर होगा, जो भोजन में हिस्सा चाहेगा -- ऐसा सोचकर बुढ़िया ने जल्दी-जल्दी जितना खा सकती थी, खा लिया। जो बचा उसको ढक दिया और तब निवृत होकर दरवाजा खोला। खोलते-खोलते बोली -- रात-दिन न जाने कहाँ से ऐसी आफत चली आती है, पलभर भी आराम नहीं करने देती।
परन्तु ज्यों ही उसने दरवाजा खोला -- एक सौम्य शान्त साधु की मूर्ति उसे दिखाई पड़ी। बुढ़िया स्तब्ध हो गयी। साधु ने वर्षा से बचने के लिए सिरपर एक मोटी बोरी डाल रखी थी।
भीगी बोरी से पानी की बूँदें टपक रही थीं। रोटी का एक टुकड़ा मिलेगा मैया ? साधु ने मौन तोड़ा। बुढ़िया जानती थी कि ऐसे साधु-संत जरा-सी सेवा के बदले बहुत कुछ दे जाते हैं, इसलिए उसने तुरंत ही भोजन की थाली हाजिर की। बदले में बहुत मिलने की आशा हो, तब थोड़ा-सा दे देने में बुढ़िया भला क्यों हिचकिचाने लगी ?
साधु भोजन करने बैठे। वृद्धा साधु के मुँह की और देखती रही। साधु के चेहरे पर एक अद्वितीय तेज झलक रहा था। आश्रम के सभी साधुओं को वह पहचानती थी, पर इनको कभी न देखा था। इनके चेहरे पर ऐसी सुकोमल नम्रता और पवित्रता थी की प्रथम दृष्टि में ही इनके अन्तस्तल का आर-पार देखा जा सकता था। पर वृद्धा को यह देखने का अवकाश कहाँ ? साधू कौन है ? उससे अधिक साधु क्या लाया है ? यह जानने के लिए वह आतुर थी !
'कितना भयंकर तूफान है' -- साधु बोले।
'धनवानों की तो चिन्ता नहीं, पर बेचारे निरीह निर्धनों का क्या होगा ? अनाथों का कौन ? यदि संसार में साधु-संतों की कृपादृष्टि न होती तो मुझ- जैसी गरीब की क्या दशा होती भगवन् !' वृद्धा ने कहा।
'इसीलिए तो मैया ! मैं तुम्हारे दरवाजे पर आया हूँ। जो भूखे को अन्न और वस्त्रहीन को वस्त्र देता है, वह धन्य है, स्वर्ग की सभी सीढियाँ उसके पास है ' साधु ने कहा -- उनके मुहँ पर दीप्ती दिखी।
'क्या कहते हैं उसके भाग्य को ?' साधु उदारता से कुछ दे जायेगा, इस आशा में हर्षित हो बुढ़िया बोली।
'माँ तेरे भाग्य की बलिहारी है, तुझसे भी अधिक गरीब और दुःखी लोगों के लिये मदद माँगने मैं यहाँ आया हूँ। दो अपरिचित महिलाएँ आश्रम में आश्रय-हेतु आयी हैं, बिजली गिरने से दोनों के घर गिरकर ढेर हो गये हैं। घरका सब कुछ स्वाहा हो गया है। बेचारी निष्किंचन और निराधार बुढ़िया ........ आश्रम के सभी खण्ड ऐसे ही निराश्रितों से भर गये हैं। फिर भी हमने उन्हें आश्रय दिया है, परन्तु पहनने-ओढ़ने का हमारे पास कुछ भी तो नहीं है ..... तुम यदि आजकी रातभर के लिए कुछ ओढने-बिछाने को देदो तो सुबह जब कुछ लोग चले जायेंगे, हम तुम्हें लौटा देंगे।
तुम्हारा तो सुरक्षित घर है, इसलिए कुछ-न-कुछ जरूर दे सकोगी।' साधु ने मदद माँगी, बुढ़िया निराश हो गयी, उसकी आवाज मन्द हो गयी -- 'महाराज ! कुछ दूर पधारते तो धनवानों की कहाँ कमी थी, मुझ गरीब का ही घर आपको मिला, मेरी हालत ही दान लेने जैसी है, इसका भी तो ख्याल किया होता।'
'एक कम्बल भी न दे सकोगी माई ? वे बेचारी ठण्ड से काँप रही हैं।'
बुढ़िया चौंकी, अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे एक सुन्दर गरम कम्बल मिला था, वह कमरे में गयी और सोचने लगी। 'नया कम्बल तो कैसे दे दिया जाये।' उसने पुराना कम्बल उठाया और उसे तह करके रख दिया। पुराने कम्बल के भी उसे अनेक गुण याद आ रहे थे -- 'पुरे सात साल से इसका उपयोग करती हूँ, फिर भी अभी वैसा ही है, वे भटकती बुढ़िया न जाने कहाँ से आयी होगी, नींद में लात मारकर मेरे कम्बल को न जाने कैसा कर डालेंगी ?' भटकने वालों को क्या भान रहेगा ? जिन्दगी में कभी कम्बल देखा हो तब न ....वे तो बोरियों पर सोने वाली ....!'
ज्यों-ज्यों वह सोचती गयी, त्यों-त्यों उसे अपना अनुमान सच्चा प्रतीत होने लगा। अचानक उसे याद आया कि ऐसे लोगों में बहुत से रोगी होते हैं, उनके लिए कम्बल कैसे दिया जाये ? दो साल पहले कुछ रोगी आये थे, उन्होंने जिन वस्तुओं का उपयोग किया था, उन्हें जला दिया गया था। कहीं मेरे कम्बल की भी वही दशा हो तो ! इतना सुन्दर कम्बल कैसे जला डाला जाये, अभी तो यह दस साल और काम दे सकेगा। फिर एक पतली रजाई उठाई, लेकिन तुरंत ही न ....न ....न यह तो मेरे बाप के घर की है, कहकर रख दी। एक पुरानी जीर्ण चद्दर को जो दीवार पर लटक रही थी, लेकर समेटने लगी। परन्तु फिर सोचा ऐरे-गैरे दिनों में यही चद्दर कम्बल का काम देती है, इसे कैसे दे दूँ ? दुःखित ह्रदय से एक दूसरी जीर्ण चादर लेकर वह बहार आयी। 'आज यह ऐसी दिखती है, पर जब खरीदी उस समय बहुत ही सुन्दर थी, आठ आने से कम तो नहीं लगे होंगे।'
'इससे अधिक आप कुछ भी नहीं दे सकतीं ?' साधु ने चादर को कन्धे पर डालते हुए पूछा। 'हाय-हाय मेरे घर में देने योग्य क्या है ? अब क्या दूँ ? सारी रात मुझे भी तो अब ठण्ड में ठिठुर-ठिठुर कर काटनी पड़ेगी।'
'बेचारी औरतें ठण्ड में ठिठुरती हैं। तुम्हारी तरह ही वृद्धा हैं। सब कुछ गँवा बैठी हैं। कुछ तो देदो।'
किन्तु बुढ़िया के पत्थर-दिल पर कोई प्रभाव न पड़ा। साधु वहाँ से निकलकर पासकी दूसरी बुढ़िया के घर गये । यहाँ भी उन्होंने वही बात कही। निराधार वृद्धाओं की हालत सुनकर वृद्धा का ह्रदय भर आया। ठीक ही है ' घायल की गति घायल जाने।' वह बोली -- 'भगवान् की दया से मुझे अभी ही यह नया कम्बल मिला है, लीजिये, ले जाइये' और उसने कम्बल दे दिया। तुरंत ही बोली -- 'यह पुराना भी लेते जाइये, काम आयेगा, यह रजाई भी और यह चादर भी यहाँ किस काम आयेगी ? एक रात तो मैं किसी तरह भी काट लूंगी, बेचारी वे औरतें ठण्ड से ठिठुर रही होंगी। मेरे कपड़े भी उनके काम आयेंगे, इन्हें भी ले जाइये।' बुढ़िया ने जितना दिया, उतना साधु ने चुपचाप ले लिया। उनके मुख पर उज्जवल मुस्कान लहरा रही था।
'लीजिये, यह भी ले जाइये और यह भी, रात में कोई बेचारा भूला-भटका आ जायेगा तो काम आयेगा। मैं तो बोरी पर ही रात काट लूंगी।' बुढ़िया ने करीब-करीब घर का सब कुछ दे दिया।
साधु के जाने के बाद आँधी अधीर हो उठी, नभ में भयंकर गर्जन होने लगी, प्रलयंकारी पवन चलने लगा, वृक्ष धड़ाधड़ गिरने लगे। अचानक एक भयंकर बिजली चमकी और उन दोनों वृद्धाओं के मकानों पर गिरकर जमीन में उतर गयी। वृद्धाएँ बच गयीं, परन्तु दोनों के घर और घर का सब कुछ स्वाहा हो गया। दुःख से बिलखती दोनों वृद्धाएँ तूफ़ान में ठोकरें खाने लगीं।
'इधर चलिए वहां मेरे आश्रम में' -- उन्हीं साधु की सुमुधुर वाणी सुनाई पड़ी। दोनों का हाथ पकड़कर साधु उनको आश्रम में ले आये। दीवार के पास छप्पर के नीचे उदार वृद्धा की दी हुई सभी वस्तुएं ज्यों-की-त्यों रखी हुई थीं।
'यह तेरा है और तुझे वापस मिलता है, माई !' साधु ने कहा ! 'तूने जो दान दिया वह खुद को ही दिया है।' परन्तु उन दोनों वृद्धाओं का क्या हुआ ? उदार वृद्धा ने चिन्तित हो पूछा।
'वे दोनों तुम ही हो, तुमने उदार बनकर निराश्रितों के लिए जो कुछ बचाया, वही भगवान् ने तुम्हारे लिए बचाया है।' -- साधु बोले।
फिर दूसरी बुढ़िया की ओर देखकर उन्होंने जीर्ण चादर देते हुए कहा -- 'तेरा सब कुछ नष्ट हो गया, सिर्फ इतना ही बचा है; क्योंकि इतना ही तुने बचाया था। आज ऐसी दिखती है, जब ली थी तब बहुत सुन्दर थी, आठ आने से कम नहीं लगा होगा।'
कंजूस बुढ़िया कुछ न बोली। सिर्फ मुँह निचा किये रही।
साधु सिर्फ धीरे से हँसे, बिजली की एक चमक ने रात्रि के अंधकार में साधु की सारी काया को तेजोमय बना डाला।
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