केवल सुनना पर्याप्त नहीँ

एक बार सत्संग समाप्ति के बाद एक श्रोता भगवान बुद्ध के समीप आया और बोला - ' भन्ते ! मैँ नियमित आपके प्रवचन सुनता हूँ - क्रोध का शमन करो ! झूठ ना बोलो ! लालच छोड़ो ! किँतु मुझमेँ तो अब तक ज़रा भी परिवर्तन नहीँ हुआ । मैँ अब भी ज्योँ का त्योँ क्रोधी , झूठा ,लालची ही हूँ ! '

यह सुनकर भगवान बुद्ध मुस्कुराए और बोले - 'अच्छा, तो आप नियमित प्रवचन सुनते हैँ ? '
व्यक्ति : जी भगवन, लगभग एक वर्ष से !
बुद्ध : किँतु परिवर्तन नहीँ ?
व्यक्ति : तिल भर भी नहीँ, भगवन !
बुद्ध : अच्छा भद्रे, यह कहो कि किस प्रांत मेँ निवास करते हो ?
व्यक्ति : जी , श्रावस्ती !
बुद्ध : यहाँ से कितनी दूरी पर है ?
व्यक्ति : जी, करीबन इतनी !
बुद्ध : यात्रा मेँ समय कितना लगता है ?
व्यक्ति : पैदल जाओ तो इतना, ताँगे पर इतना !
बुद्ध : ठीक है, तुम ऐसा करो कि यहीँ बैठे-बैठे श्रावस्ती पहुँच जाओ ।
व्यक्ति : पर भगवन, यह तो असंभव है । श्रावस्ती जाने के लिए तो यहाँ से वहाँ तक चलना ही होगा ।
बुद्ध : फिर भद्रे, अमल की डगर पर चले बिना परिवर्तन की मंज़िल कैसे मिल सकती है ?
प्रवचनोँ को सुनकर धारण करना भी तो आवश्यक है ।

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