स्यमंतक मणि की कथा

श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कंध के अध्याय 56 और 57 में श्री शुकदेव जी महाराज कहते हैं,'' परीक्षित ! सत्राजित ने श्री कृष्ण पर मणि चोरी का झूठा कलंक लगाया था और फिर अपने उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमंतक मणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण को सौंप दी। ''

राजा परीक्षित ने पूछा," भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्री कृष्ण का क्या अपराध किया था ? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली ? और उसने अपनी कन्या श्री कृष्ण को क्यों सौंप दी ? ''

श्री शुकदेव जी कहते हैं," परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। सूर्यदेव उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस दिव्य मणि को गले में धारण करके ऐसा चमकने लगा, मानों स्वयं सूर्यदेव ही हों ।

जब सत्राजित द्वारका आया, तो अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके । दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य ही आ रहें हैं।

उन लोगों ने भगवान श्री कृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी । भगवान उस समय चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहा," हे शंख-चक्र-गदाधारी, नारायण! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए भगवान सूर्य आपके दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूंढते रहते हैं। आज आपको यदुवंश में छिपा जानकर सूर्य भगवान आपके दर्शन करने आ रहे हैं। "

श्री शुकदेव जी कहते हैं," अंजान लोगों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्री कृष्ण हंसने लगे । उन्होंने कहा," यह तो सत्राजित है, जो मणि के प्रभाव से इतना चमक रहा है। "
इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर चला आया। घर पर उसके शुभ आगमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमंदिर में स्थापित करवा दिया। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहां वह मणि पूजित होकर रहती थी, वहाँ महामारी, ग्रह -पीड़ा, सर्पभय, मानसिक एवं शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था।
एक बार भगवान श्री कृष्ण ने प्रसंगवश कहा," सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो । पर वह इतना अर्थ-लोलुप था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करते हुए भगवान श्री कृष्ण की बात को अस्वीकार कर दिया।

श्री शुकदेव जी कहते हैं," एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमय मणि को अपने गले में धारण कर लिया और वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस दिव्य मणि को छीन लिया। वह सिंह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ॠक्षराज जाम्बवान् ने उस सिंह को मार डाला और उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चों को खेलने के लिए दे दी।

अपने भाई प्रसेन के न लौटने पर उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा," बहुत संभव है कि श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डाल कर वन गया था। "

सत्राजित की बात सुनकर लोग आपस में काना-फूंसी करने लगे। जब भगवान श्री कृष्ण ने यह सुना कि इस कलंक का टीका मेरे सिर लगाया जा रहा है, तब वह नगर के कुछ सभ्य पुरषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूंढने वन में गये।

वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों के निशान देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।

भगवान श्री कृष्ण ने सब लोगों को गुफा के बाहर ही बैठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ॠक्षराज की उस भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उस मणि को हर लेने की इच्छा से बच्चों के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चों की दायीं भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट को सुनकर परम बली ॠक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये।

श्री शुकदेव जी कहते हैं," उस समय जाम्बवान कुपित हो रहे थे और उन्हें भगवान की महिमा एवं प्रभाव का पता नहीं चला। उन्होंने भगवान को एक साधारण मनुष्य समझ लिया और अपने स्वामी भगवान श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। मणि के विजयाभिलाषी भगवान श्री कृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया और फिर शिलाओं का उपयोग किया। तत्पश्चात वें दोनों वृक्ष उखाड़ कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे । अन्त में इनमें बाहुयुद्ध होने लगा। वज्र प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक गाँठ टूट गई। उनका उत्साह जाता रहा। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्री कृष्ण से कहा," हे प्रभु ! मैं जान गया, आप ही समस्त प्राणियों के रक्षक, प्राण-पुरष भगवान हैं, आप ही सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं और आप अवश्य ही मेरे वही भगवान हैं, जिन्होंने अपने दिव्य बाणों से राक्षसों के सिर काट-काट कर पृथ्वी पर गिरा दिए। "

जब जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी करकमल को जाम्बवान के शरीर पर फेर दिया और फिर कृपा से भरकर अत्यंत प्रेम से अपने भक्त जाम्बवान से कहने लगे कि हम इस मणि के लिए तुम्हारी गुफा में आये हैं और इस मणि के द्वारा मैं अपने ऊपर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान जी ने बड़े आनंद के साथ उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती जी को मणि के साथ भगवान के श्री चरणों में समर्पित कर दिया।

भगवान श्री कृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की, पर जब उन्होंने देखा कि अब तक भगवान गुफा से नहीं निकलें, तो वह सब अत्यंत दुखी हो द्वारका वापिस लौट आए। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी सहित अन्य संबंधियों और कुटुम्बियों को पता चला, तो उन्हें बहुत शोक हुआ। सभी द्वारकावासी सत्राजित को भला-बुरा कहने लगे और भगवान श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया की शरण गए।

महामाया उनकी उपासना से प्रसन्न होकर प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि सहित अपनी नववधू जाम्बवती को लेकर प्रकट हो गये।

तदनंतर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। अपने अपराध पर सत्राजित को। बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। अब वह यही सोचता रहता कि मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ  ? मैं ऐसा कौन सा कार्य करूँ कि लोग मुझे कोसे नहीं।

उसने विचार किया कि अब मैं अपनी रमणियों में रत्न के समान पुत्री सत्यभामा और स्यमंतक मणि दोनों को ही श्री कृष्ण को दे दूँ, तो मेरे अपराध का अन्त हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है।

सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि गुणों से संपन्न थी। सत्राजित ने अपनी कन्या और स्यमंतक मणि दोनों को ले जाकर भगवान श्री कृष्ण को अर्पित कर दिया।
भगवान ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया और सत्राजित से कहा कि हम स्यमंतक मणि नहीं लेंगे। आप सूर्य भगवान के परम भक्त हैं, इसलिए वह आप ही के पास रहे । हम तो केवल उसके फल अर्थात् उससे निकले सोने के अधिकारी हैं, वही आप हमें दे दिया करें।

कुछ ही समय बाद अक्रूर के कहने पर ऋतु वर्मा ने सत्राजित को मारकर मणि छीन ली। श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ उनसे युद्ध करने पहुंचे। युद्ध में जीत हासिल होने वाली थी कि ऋतु वर्मा ने मणि अक्रूर को दे दी और भाग निकला। श्रीकृष्ण ने युद्ध तो जीत लिया लेकिन मणि हासिल नहीं कर सके। जब बलराम ने उनसे मणि के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मणि उनके पास नहीं। ऐसे में बलराम खिन्न होकर द्वारिका जाने की बजाय इंद्रप्रस्थ लौट गए।
उधर द्वारिका में फिर चर्चा फैल गई कि श्रीकृष्ण ने मणि के मोह में भाई का भी तिरस्कार कर दिया। मणि के चलते झूठे लांछनों से दुखी होकर श्रीकृष्ण सोचने लगे कि ऐसा क्यों हो रहा है।

तब नारद जी आए और उन्होंने कहा कि हे श्री कृष्ण ! आपने भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन किये थे और इसी कारण आपको मिथ्या कलंक झेलना पड़ रहा हैं।
श्रीकृष्ण चंद्रमा के दर्शन कि बात विस्तार पूछने पर नारदजी ने श्रीकृष्ण को कलंक वाली यह कथा बताई थी-

एक बार भगवान श्रीगणेश ब्रह्मलोक से होते हुए लौट रहे थे कि चंद्रमा को गणेशजी का स्थूल शरीर और गजमुख देखकर हंसी आ गई। गणेश जी को अपना यह अपमान सहन नहीं हुआ और उन्होंने चंद्रमा को शाप देते हुए कहा, "पापी तूने मेरा मजाक उड़ाया हैं। आज मैं तुझे शाप देता हूं कि जो भी तेरा मुख देखेगा, वह कलंकित हो जायेगा। "

गणेशजी का शाप सुनकर चंद्रमा बहुत दुखी हुए क्योंकि इस प्रकार तो उन्हें सृष्टि में सर्वदा अशुभ होने की मान्यता प्राप्त हो जाएगी। गणेशजी के शाप वाली बात चंद्रमा ने समस्त देवताओं को बतायी तो सभी देवताओं को चिंता हुई और विचार विमर्श करने लगे कि चंद्रमा ही रात्रिकाल में पृथ्वी का आभूषण हैं तथा इसे देखे बिना पृथ्वी पर रात्रि का कोई काम पूरा नहीं हो सकता।

अत: चंद्रमा को साथ लेकर सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुचें। देवताओं ने ब्रह्माजी को सारी घटना विस्तार से सुनाई। उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजी बोले, " चंद्रमा तुमने सभी गणों के अराध्य देव शिव-पार्वती के पुत्र गणेश का अपमान किया हैं। यदि तुम गणेश के शाप से मुक्त होना चाहते हो तो श्रीगणेशजी का व्रत रखो। वे दयालु हैं, तुम्हें माफ कर देंगे। "

चंद्रमा गणेशजी को प्रशन्न करने के लिये कठोर व्रत-तपस्या करने लगे। भगवान गणेश चंद्रमा की कठोर तपस्या से प्रसन्न हुए और कहा वर्षभर में केवल एक दिन भाद्रपद में शुक्ल चतुर्थी की रात्रि को जो तुम्हें देखेगा, उसे ही कोई मिथ्या कलंक लगेगा। बाकी दिन कुछ नहीं होगा। केवल एक ही दिन कलंक लगने की बात सुनकर चंद्रमा समेत सभी देवताओं ने राहत की सांस ली।

उसी दिन से गणेश चतुर्थी यानि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन निषेध माना गया है।
स्वयं श्रीकृष्ण जी ने भागवत ( स्कंध -10 के अध्याय 56 ) में इसे मिथ्याभिशाप कहकर मिथ्या कलंक का ही संकेत दिया है। स्कंद पुराण में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कहा है कि भादव के शुक्ल पक्ष के चन्द्र दर्शन मैंने गोखुर के जल में किए, जिसके फलस्वरूप मुझ पर मणि की चोरी का झूठा कलंक लगा-

*" मया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चंद्रदर्शनं गोष्पदाम्बुनि वै राजन् कृतं दिवमपश्यता " *

देवर्षि नारदजी ने भी श्री कृष्ण को भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को चन्द्र दर्शन करने के फलस्वरूप व्यर्थ कलंक लगने की बात कही है-

" त्वया भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्यां चन्द्रदर्शनम् । कृतं येनेह भगवन् वृथाशापमवाप्तवानम् ।। "

इसके अतिरिक्त श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इस तिथि को चन्द्रमा के दर्शन ना किए जाने के संकेत दिए हैं-

" सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चौथि कै चंद की नाईं ।। "

यदि भूलवश इस तिथि को चन्द्र  दर्शन हो ही जायें
विष्णु पुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्र दर्शन से कलंक लगने के शमन हेतु विष्णु पुराण में वर्णित स्यमंतक मणि का उल्लेख पढ़ने या सुनने से यह दोष समाप्त होता है।

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