मलूकचंद नाम के एक सेठ थे।
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उनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक ग्राम में वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी को संवत् 1631 में हुआ था।
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पूर्व के पुण्य से वे बाल्यावस्था में तो अच्छे रास्ते चले ,
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उनके घर के नजदीक ही एक मंदिर था।
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एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी।
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सुबह उन्होंने पुजारी जी को खूब डाँटा कि "यह सब क्या है ?"
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पुजारी जी बोलेः "एकादशी का जागरण कीर्तन चल रहा था।"
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मलूकचंद बोलेः "अरे ! क्या जागरण कीर्तन करते हो ? हमारी नींद हराम कर दी।
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अच्छी नींद के बाद व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है तब खाता है।"
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पुजारी जी ने कहाः "मलूकजी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।"
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मलूकचंद बोलेः "कौन खिलाता है ? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?"
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पुजारी जी ने कहाः "वही तो खिलाता है।"
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मलूकचंद बोलेः "क्या भगवान खिलाता है ! हम कमाते हैं तब खाते हैं।"
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पुजारी जी ने कहाः "निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना, बाकी सबको खिलाने वाला, सबका पालनहार तो वह जगन्नियन्ता ही है।"
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मलूकचंद बोलेः "क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है ! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो।
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क्या तुम्हारा पालने वाला एक-एक को आकर खिलाता है ? हम कमाते हैं तभी तो खाते हैं !"
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पुजारी जी ने कहाः "सभी को वही खिलाता है।"
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मलूकचंद बोलेः "हम नहीं खाते उसका दिया।"
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पुजारी जी ने कहाः "नहीं खाओ तो मारकर भी खिलाता है।"
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मलूकचंद बोलेः "पुजारी जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटों में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा।"
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पुजारी जी ने कहाः "मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन उसके हाथ बढ़े लम्बे हैं।
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जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। आजमाकर देख लेना।"
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पुजारीजी भगवान में प्रीति वाले कोई सात्त्विक भक्त रहें होंगे।
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मलूकचंद किसी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़कर बैठ गये कि 'अब देखें इधर कौन खिलाने आता है।
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चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी, सदा के लिए कीर्तन की झंझट मिट जायेगी।'
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दो-तीन घंटे के बाद एक अजनबी आदमी वहाँ आया।
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उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया, फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया। भूल गया कहो, छोड़ गया कहो।
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भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा की थी अथवा मनुष्यरूप में साक्षात् भगवत्सत्ता ही वहाँ आयी थी, यह तो भगवान ही जानें।
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थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए। उनमें से एक ने अपने सरदार से कहाः "उस्ताद ! यहाँ कोई थैला पड़ा है।"
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"क्या है ? जरा देखो।" खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा टिफिन !
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"उस्ताद भूख लगी है। लगता है यह भोजन अल्लाह ताला ने हमारे लिए ही भेजा है।"
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"अरे ! तेरा अल्लाह ताला यहाँ कैसे भोजन भेजेगा ? हमको पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा।
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इधर-उधर देखो जरा कौन रखकर गया है।"
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उन्होंने इधर-उधर देखा लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा।
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तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायीः "कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है।"
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मलूकचंद ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि 'अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।'
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वे तो चुप रहे लेकिन जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है, भक्तवत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत नहीं रहता !
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उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि 'ऊपर भी देखो।' उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।
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डकैत चिल्लायेः "अरे ! नीचे उतर!"
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं उतरता।"
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"क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।"
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मलूकचंद बोलेः "मैंने नहीं रखा। कोई यात्री अभी यहाँ आया था, वही इसे यहाँ भूलकर चला गया।"
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"नीचे उतर ! तूने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है।
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तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा।"
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अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा, किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है। बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की !
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मलूकचंद बोलेः "मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा।"
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"पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है। अरे ! नीचे उतर, अब तो तुझे खाना ही होगा !"
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं खाऊँगा,नीचे भी नहीं उतरूँगा।"
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"अरे, कैसे नहीं उतरेगा !" डकैतों के सरदार ने अपने एक आदमी को हुक्म दियाः "इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।"
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डकैत ने मलूकचंद को पकड़कर नीचे उतारा।
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"ले, खाना खा।"
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं खाऊँगा।"
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उस्ताद ने धड़ाक से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया।
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मलूकचंद को पुजारीजी की बात याद आयी कि 'नहीं खाओगे तो मारकर भी खिलायेगा।'
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं खाऊँगा।"
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"अरे,कैसे नहीं खायेगा! इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो।" ,
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डकैतों ने उससे नाक दबायी, मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे।
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वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।
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अब मलूकचंद ने सोचा कि 'ये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ। नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे।'
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इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन- ही-मन कहाः 'मान गये मेरे बाप ! मारकर भी खिलाता है !
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डकैतों के रूप में आकर खिला चाहे भक्तों के रूप में आकर खिला लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है। अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।'
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मलूकचंद के बचपन की भक्ति की धारा फूट पड़ी।
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उनको मारपीटकर डकैत वहाँ से चले गये तो मलूकचंद भागे और पुजारी जी के पास आकर बोलेः
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"पुजारी जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मारकर भी खिलाता है।"
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पुजारी जी बोलेः "वैसे तो कोई तीन दिन तक खाना न खाये तो वह जरूर किसी-न-किसी रूप में आकर खिलाता है...
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लेकिन मैंने प्रार्थना की थी कि 'तीन दिन की नहीं एक दिन की शर्त रखी है, तू कृपा करना।'
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अगर कोई सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हृदयपूर्वक प्रार्थना करता है तो वह अवश्य सुनता है।
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वह तो सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।"
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उनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक ग्राम में वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी को संवत् 1631 में हुआ था।
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पूर्व के पुण्य से वे बाल्यावस्था में तो अच्छे रास्ते चले ,
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उनके घर के नजदीक ही एक मंदिर था।
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एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी।
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सुबह उन्होंने पुजारी जी को खूब डाँटा कि "यह सब क्या है ?"
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पुजारी जी बोलेः "एकादशी का जागरण कीर्तन चल रहा था।"
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मलूकचंद बोलेः "अरे ! क्या जागरण कीर्तन करते हो ? हमारी नींद हराम कर दी।
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अच्छी नींद के बाद व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है, फिर कमाता है तब खाता है।"
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पुजारी जी ने कहाः "मलूकजी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।"
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मलूकचंद बोलेः "कौन खिलाता है ? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?"
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पुजारी जी ने कहाः "वही तो खिलाता है।"
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मलूकचंद बोलेः "क्या भगवान खिलाता है ! हम कमाते हैं तब खाते हैं।"
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पुजारी जी ने कहाः "निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना, बाकी सबको खिलाने वाला, सबका पालनहार तो वह जगन्नियन्ता ही है।"
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मलूकचंद बोलेः "क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है ! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो।
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क्या तुम्हारा पालने वाला एक-एक को आकर खिलाता है ? हम कमाते हैं तभी तो खाते हैं !"
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पुजारी जी ने कहाः "सभी को वही खिलाता है।"
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मलूकचंद बोलेः "हम नहीं खाते उसका दिया।"
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पुजारी जी ने कहाः "नहीं खाओ तो मारकर भी खिलाता है।"
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मलूकचंद बोलेः "पुजारी जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटों में नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा।"
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पुजारी जी ने कहाः "मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन उसके हाथ बढ़े लम्बे हैं।
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जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता। आजमाकर देख लेना।"
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पुजारीजी भगवान में प्रीति वाले कोई सात्त्विक भक्त रहें होंगे।
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मलूकचंद किसी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़कर बैठ गये कि 'अब देखें इधर कौन खिलाने आता है।
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चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी, सदा के लिए कीर्तन की झंझट मिट जायेगी।'
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दो-तीन घंटे के बाद एक अजनबी आदमी वहाँ आया।
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उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया, फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया। भूल गया कहो, छोड़ गया कहो।
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भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा की थी अथवा मनुष्यरूप में साक्षात् भगवत्सत्ता ही वहाँ आयी थी, यह तो भगवान ही जानें।
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थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए। उनमें से एक ने अपने सरदार से कहाः "उस्ताद ! यहाँ कोई थैला पड़ा है।"
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"क्या है ? जरा देखो।" खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा टिफिन !
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"उस्ताद भूख लगी है। लगता है यह भोजन अल्लाह ताला ने हमारे लिए ही भेजा है।"
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"अरे ! तेरा अल्लाह ताला यहाँ कैसे भोजन भेजेगा ? हमको पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा।
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इधर-उधर देखो जरा कौन रखकर गया है।"
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उन्होंने इधर-उधर देखा लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा।
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तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायीः "कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है।"
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मलूकचंद ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि 'अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले पड़ेंगे।'
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वे तो चुप रहे लेकिन जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है, भक्तवत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत नहीं रहता !
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उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि 'ऊपर भी देखो।' उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।
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डकैत चिल्लायेः "अरे ! नीचे उतर!"
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं उतरता।"
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"क्यों नहीं उतरता, यह भोजन तूने ही रखा होगा।"
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मलूकचंद बोलेः "मैंने नहीं रखा। कोई यात्री अभी यहाँ आया था, वही इसे यहाँ भूलकर चला गया।"
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"नीचे उतर ! तूने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है।
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तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा।"
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अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके द्वारा, किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है। बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की !
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मलूकचंद बोलेः "मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा।"
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"पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है। अरे ! नीचे उतर, अब तो तुझे खाना ही होगा !"
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं खाऊँगा,नीचे भी नहीं उतरूँगा।"
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"अरे, कैसे नहीं उतरेगा !" डकैतों के सरदार ने अपने एक आदमी को हुक्म दियाः "इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।"
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डकैत ने मलूकचंद को पकड़कर नीचे उतारा।
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"ले, खाना खा।"
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं खाऊँगा।"
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उस्ताद ने धड़ाक से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया।
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मलूकचंद को पुजारीजी की बात याद आयी कि 'नहीं खाओगे तो मारकर भी खिलायेगा।'
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मलूकचंद बोलेः "मैं नहीं खाऊँगा।"
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"अरे,कैसे नहीं खायेगा! इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो।" ,
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डकैतों ने उससे नाक दबायी, मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे।
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वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।
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अब मलूकचंद ने सोचा कि 'ये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ। नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे।'
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इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन- ही-मन कहाः 'मान गये मेरे बाप ! मारकर भी खिलाता है !
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डकैतों के रूप में आकर खिला चाहे भक्तों के रूप में आकर खिला लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है। अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।'
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मलूकचंद के बचपन की भक्ति की धारा फूट पड़ी।
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उनको मारपीटकर डकैत वहाँ से चले गये तो मलूकचंद भागे और पुजारी जी के पास आकर बोलेः
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"पुजारी जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मारकर भी खिलाता है।"
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पुजारी जी बोलेः "वैसे तो कोई तीन दिन तक खाना न खाये तो वह जरूर किसी-न-किसी रूप में आकर खिलाता है...
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लेकिन मैंने प्रार्थना की थी कि 'तीन दिन की नहीं एक दिन की शर्त रखी है, तू कृपा करना।'
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अगर कोई सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हृदयपूर्वक प्रार्थना करता है तो वह अवश्य सुनता है।
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वह तो सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।"
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