एक बार की बात है की राजा जनक सो रहे थे। तो उनको सपना आया की में भिखारी हो गया हूँ। और अपने ही राज्य में भीख मांग रहा हूँ। तो राज्य की जनता महाराज जनक को देखकर कहने लगी" की ये हमारे महाराज है। इनको भिक्षा देना ठीक नही है इनको मन्दिर पर ले जाते है" जो भी खाने पिने की सामग्री इनके पास मंदिर पर ही भेज दिया करेगें।
इतने में ही राजा जनक की नींद खुल गयी।अब वो सोचने लगे की यह सच है की में अपने राज भवन में हूँ या वो सच है की में भिखारी बनकर अपने ही राज्य में भीख माँग रहा हूँ। इसका सच विद्वानों से पता करना चाहिये।
अगले दिन राजा जनक का दरवार लगा।बड़े बड़े विद्वानों को निमन्त्रण गया।पर इस दरवार में राजा जनक का सवाल था की यह सच है की में राजा हूँ। या वो सच है जो स्वप्न में देखा की में भिखारी हो गया हूँ ।और अपने ही राज्य में भिक्षा माँग रहा हूँ।जो भी मेरे प्रशन का उत्तर नीचे सभा में बैठकर देगा यदि उत्तर सही नही हुआ तो उसको जेल भेज दिया जाएगा। और यदि मेरे प्रशन का उत्तर सिंघासन पर बैठकर दिया "यदि उत्तर सही न हुआ तो सर कलम कर दिया जाएगा। फिर जो भी विद्वान महाराज के प्रश्न का उत्तर दे वो नीचे सभा में बैठकर ही दे। जिससे महाराज जनक को संतुष्टि नही हुई और एक एक करके जेल भेजता जाए।
उधर ब्रह्रमऋषि अष्टरावक्र जी महाराज 10 वर्ष के थे।वो आठ जगह से टेड़े थे इसलिये उनका नाम अष्टरावक्र जी था।उनको अपना पिछ्ला जन्म याद था की में ब्रह्रमज्ञानि ऋषि हूँ।ये तो स्वर्ग की अप्सरा के चलते मुझे ये नया जन्म मिला है।जैसे विश्वामित्र जी की तपस्या भंग करने का कारण स्वर्ग की अप्सरा बनी थी। पर मुझे श्राप लगा है।
एक दिन अष्टरावक्र जी महाराज अपनी माँ से पूछने लगे की मेरे पिता श्री कहाँ है तो माता जी ने डर की वजय से नही बताया की वो राजा जनक की जेल में है। क्या पता ये भी न चला जाए जनक के दरवार जिससे ये भी जेल में बंद हो जाए। परंतु प्रिय संतो अष्टराबकृ जी को पड़ोसियों ने बता दिया की वे राजा जनक की जेल में बंद है।और राजा जनक का प्रश्न भी बता दिया था। अष्टरावक्र जी जनक के दरवार चल दिए।
अष्टरावक्र जी को जनक जी के दरवारी अंदर न जाने दे। उसके बाद एक दरवारी की राम धर्म में आ गयी' की हमारा क्या लेगा। जाने दो अन्दर लाभ और हानि खुद ही भुगतेगा। अष्टरावक्र जी महाराज दरवार में जाकर " सिंघासन पर विराजमान हो गए।इतने में ही सारी सभा उनके शरीर को देखकर हँसने लगी।अष्टरावक्र जी निडर होकर कहने लगे की में चमारों की सभा में आ गया हूँ। जिन्होंने मेरे चमड़े की पहचान की है। यदि मेरे गुणों की पहचान करते तो आज मेरे पर हँसते नही थे।
क्योकि चमड़े की पहचान एक चमार ही कर सकता है। इतना सुनते ही सारी सभा शान्त हो गयी।अष्टरावक्र जी कहने लगे की " नदी यदि टेडी मेडी बहती हुई जाती है तो उसका जल कभी भी तीखा नही लगता और यदि गन्ना टेड़ा मेडा है तो उसका रस कभी भी खारा नही होगा वल्कि मीठा ही होगा। इतने में राजा जनक सभी सभापतियों की तरफ से क्षमा मागते है और अपना प्रश्न कहते है। की मै सपने में भिखारी होकर "अपने राज्य में भीख माँग रहा हूँ ये सच है या अभी राजा हूँ ये सच है। अष्टरावक्र जी कहने लगे।।
महाराज जनक एक सपना वो होता है जो आँख बंद करके देखा जाता है" जो आँखे खुलने पर टूट जाता है।इसलिये ये सत्य नही है। एक सपना यह है जो आप सब अपनी आँखे खोलकर देख रहे हो की मेरा महल मेरे दास दासियाँ जो आँख बंद होने पर टूट जाएगा।इसलिए न तो ये सच है और न ही वो सच है।उसके बाद अष्टरावक्र जी महाराज जनक जी को एक जंगल में ले गए और कहने लगे की" घोड़े की एक रकाब से दूसरी रकाब में पैर रखने के समय में सत्य की जानकारी हो जाती है।
एक उदाहरण रामायण से भी मिलता है की जब भगवान राम वाल्मीकि जी की कुटिया पर गए।तो वाल्मीकि जी बोले की फूल को मसलने में समय लग सकता है। सत्य को जानने में इतना समय नही लगेगा।
परमात्मा के सत्य को अपने अंदर से जानो जो नौ द्वार बताये गए है। या अपने बाहर से जानो जो नौ माया है। सत्य तो एक ही है अंदर बाहर। जैसे जैसे संतो ने जाना है वैसे वैसे लिख दिया है। हमे भी संतो जैसे अनुभव होते है तो हम सही रास्ते पर है। बाकी तो -
जाकी रही भावना जैसी ।
प्रभु विन मूरत देखि तैसी।।
प्रभु विन मूरत देखि तैसी।।
उसके बाद प्रिय संतअष्टरावक्र जी ने उस अडोल अकाट्य एकरस अविनाशी परम् सत्ता निर्गुण निराकार पार्ब्रह्रम के दर्शन राजा जनक जी को करा दिए और सभी को जेल से रिहा करवा दिया।
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