एक अदभुत कविता..."महाकुम्भ से गँगा जल"
महाकुम्भ से गँगा जल में,
चोरी करके लाया हूँ!
नेताओं ने कर दिया गन्दा,
संसद धोने आया हूँ!!
देश उदय का नारा देकर, जनता को बहकाते हैं,
पैंसठ वर्ष की आज़ादी को, भारत उदय बताते हैं!
महँगाई है कमर तोडती,बेरोजगारी का शासन है,
कमर तलक कर्जे का कीचड़ यह प्रगति बतलाते हैं !!
चोर बाजारी, घोटालों का देश में मेरे डेरा है,
दलालों और लुटेरों ने ही, मेरे देश को घेरा है !
काण्ड अनेकों कर गए लेकिन, जन-गण मौन हुआ बैठा,
सूरज भी ख़ामोश यहाँ पर, छाया घोर अँधेरा है।।
धर्म नाम का परचम लहरा, हर मुखड़ा है डरा हुआ,
काशी, मथुरा और अवध में, चतुर्दिक विष भरा हुआ।।
नेता सब को बहकाते हैं, भारत में घुसपैठ बढ़ी,
नोच-नोच कर देश को खाया, देश है गिरवीं पड़ा हुआ।।।
सत्ता के सिंहासन को मैं,
गीत सुनाने आया हूँ।
महाकुम्भ से गँगा जल मैं,
चोरी करके लाया हूँ।।
यह चोरी का गँगा जल, हर चोरी को दिखलायेगा,
नेताओं की धींगामुश्ती यह, गँगा जल छुड़वायेगा।
अंग्रेज़ी की बीन बजाने वालों हो जाओ गूँगे,
यह गँगा जल भारत में, हिन्दी को मान दिलायेगा।।
साभार:- योग सन्देश सुरेन्द्र सिंह दहिया, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार
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