जिहाद से भारत का सम्बंध

जिहाद से भारत का सम्बंध हजार वर्ष पुराना है। भारत में वर्षों शासन करने वाले बादशाह भी जिहाद की बात करते थे। 13वीं 14वीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के अंदर ही एक अन्य समानांतर धारा विकसित हुई। यह थी सूफी धारा। हालांकि सूफी धारा के अगुआ भी इस्लाम का प्रचार करते थे किन्तु वे प्रेम और सद्भाव से इस्लाम की बात करते थे। किन्तु बादशाहों पर सूफियों से कहीं अधिक प्रभाव कट्टरपंथियों का था। इस्लाम के साथ-साथ जिहाद शब्द और जिहादी मनोवृत्ति को भारत पिछले हजार वर्षों से झेल रहा है।

भारत में जो बात हिन्दुओं के साथ हुई, वही बात यूरोप में ईसाइयों के साथ हुई। एक समय ऐसा भी आया था जब स्पेन तक इस्लामी राज्य स्थापित हो गया था। 11वीं शताब्दी में ईसाइयों ने मुसलमानों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा। फिलीस्तीन का सारा क्षेत्र यहूदी और ईसाई दोनों के लिए पवित्र था। अत: दोनों उस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए संघर्ष करते रहे। ईसाइयों ने यहूदियों के साथ इस संघर्ष के लिए जिहाद की टक्कर में एक नया शब्द इस्तेमाल किया - क्रूसेड। क्रूसेड का अर्थ भी लगभग जिहाद की तरह है। इसका अर्थ है विधर्मियों से अपने पवित्र स्थल को मुक्त कराना। जिहाद के विरुद्ध क्रूसेड किया गया। लगभग सारा यूरोप संगठित होकर क्रूसेड के तले जिहाद का सामना कर रहा था। 14वीं शताब्दी में क्रूसेड अत्यंत प्रभावशाली रहा। विशेषत: स्पेन से और पूरे यूरोप से इस्लाम को लगभग समाप्त कर दिया गया। इस्लाम अब तुर्की तक सिमट कर रह गया था।

किन्तु यूरोप में ईसाई जिस प्रकार संगठित होकर जिहाद के विरुद्ध लड़े, उस तरह हम भारतीय नहीं लड़ सके। इसके पीछे कई कारण थे। उस समय इस्लाम के पास जिहाद शब्द था, ईसाइयों के पास क्रूसेड शब्द था लेकिन दुर्भाग्य से हम भारतीयों के पास ऐसा कोई सामयिक या प्रतीकात्मक शब्द नहीं था जो हमें एक संगठित मंच या नेतृत्व देता। हालांकि भारत में उस समय शक्तिशाली और प्रभावशाली राजाओं की कमी नहीं थी। अनेकों ने विदेशी आक्रांताओं का अत्यंत वीरतापूर्वक सामना भी किया। लेकिन उनके सामने कोई एक स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। वे ज्यादातर अपनी-अपनी राज्य सीमाओं का बचाव करके चुप हो जाते थे। इसलिए कभी भी संगठित होकर भारत में आक्रांताओं द्वारा लाए गए जिहाद का पूरी शक्ति से विरोध नहीं हुआ।

हालांकि बीच-बीच में प्रयास हुए। सोमनाथ की रक्षा के लिए वहां के राजा ने अपनी सेना को संगठित किया। लेकिन समीपवर्ती राजस्थान के राजा ने उसका साथ नहीं दिया। भारत में लम्बे समय तक कभी तुर्कों, पठानों और फिर मुगलों के साथ-साथ जिहाद भी पनपता रहा।

जिहाद या इस्लामी आक्रांताओं के विरुद्ध छिटपुट युद्ध तो हुए किन्तु संगठित प्रयास नहीं हो सका। जिहाद के विरुद्ध हिन्दू राजाओं के प्रयास की बात करें तो सबसे पहले हमें दक्षिण में छत्रपति शिवाजी दिखते हैं। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध न केवल एक संगठित विद्रोह खड़ा किया बल्कि अपने प्रयास को एक लक्ष्य भी दिया। छत्रपति शिवाजी ने उस लक्ष्य को हिन्दवी साम्राज्य स्थापित करने का नाम दिया। संभवत: वह प्रथम हिन्दू राजा थे जिन्होंने इस्लाम और जिहाद के विरुद्ध हिन्दवी साम्राज्य का संकल्प दिया।

जिहाद के विरुद्ध जिस प्रयोजनशील शब्द की आवश्यकता थी वह गुरु गोविन्द सिंह ने दिया। गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी परम्परा से ही एक शब्द दिया - धर्मयुद्ध। धर्मयुद्ध जिहाद की टक्कर का शब्द था। ऐसा प्रयोजनमूलक और मंतव्य देने वाला शब्द इससे पहले कभी प्रयोग नहीं किया गया था। धर्मयुद्ध शब्द के साथ उन्होंने पूरा युद्ध दर्शन विकसित किया। पुरानी मानसिकता बदलकर शस्त्रधारण करने की बात कही। मुगलों के साम्राज्य में, विशेषत: उत्तरी भारत में लोगों को (राजपूतों को छोड़कर) न शस्त्र धारण करने की, न माथे पर तिलक लगाने की, और यहां तक कि जूते तक पहनने की भी आज्ञा नहीं थी। किन्तु गुरु गोविन्द सिंह ने लोगों को संगठित कर शस्त्र धारण करवाए, जूते पहनने को कहा तथा उनके नाम के साथ सिंह लगाया ताकि उनमें वीर भाव जाग्रत हो, एक उदासीनता और लचरता, जो मुगलों की लम्बी अधीनता में लोगों के अंदर थी, वह टूटे। उन्होंने एक बहुत बड़े ग्रंथ "कृष्णावतार" की रचना की जो "भागवतपुराण" के दशमस्कंध पर आधारित है। उसमें उन्होंने एक स्थान पर लिखा है-

दशमकथा भागवत की, रचना करी बनाई,

अवर (और) वासना नाहीं प्रभु, धर्मयुद्ध को चाई।

अर्थात् भागवत जो संस्कृत में है और मैंने इसे ब्रजभाषा या जनभाषा में लिखा है, मेरे मन में सिर्फ धर्मयुद्ध का चाव है।

धर्मयुद्ध में गुरु गोविन्द सिंह जी ने सभी जातियों को शामिल किया था। यह अजीब बात थी कि जहां एक ओर जिहाद में सभी मुस्लिम और क्रूसेड में सभी ईसाई शामिल थे, वहीं भारत में कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत से भी कम युद्ध में भाग लेता था। 90 प्रतिशत जनता तो खड़ी देखती रहती थी। यही कारण था कि धर्मयुद्ध में गुरु गोविन्द सिंह जी ने जनभागीदारी को सीमित नहीं किया। धर्मयुद्ध के लिए सबसे आगे रहने वाले पंचप्यारों में भी केवल एक क्षत्रिय था, बाकी चार में जाट, धोबी, कहार तथा नाई थे। उन्हें योद्धा बनाया गया। और आगे चलकर वे ऐसे कुशल योद्धा बने कि दुर्दान्त पठान जो खैबर दर्रों से आते थे, उनका मुंह मोड़ा। जिन दुर्दान्त लड़ाकों का सामना आज अमरीका भी नहीं कर पा रहा है, उन्हीं योद्धाओं को भगाकर महाराजा रणजीत सिंह के समय में सिख सेनाओं ने जमरूद तक अपना अधिकार जमा लिया था। उस समय कश्मीर और लाहौर को भी अफगानों से छीनकर रणजीत सिंह ने अपना कब्जा जमा लिया था।

गुरु गोविन्द सिंह के समय से शुरु हुआ धर्मयुद्ध वास्तविक अर्थों में एक प्रयोजनबद्ध लक्ष्य था। बिना लक्ष्य के सामान्य युद्ध लड़े जा सकते हैं, जिहाद या क्रूसेड नहीं। मुझे लगता है कि अगर गुरु गोविन्द सिंह ने धर्मयुद्ध का लक्ष्य न दिया होता तो आज विभाजन सीमा वाघा नहीं, संभवत: दिल्ली या इससे भी आगे होती। यह अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय था जिहाद के विरुद्ध भारत और भारतीयों के प्रतिरोध के इतिहास का। भारतीय अब यह सोचने लगे थे कि दुर्दान्त आक्रान्ताओं का सामना कर उन्हें उनके घर तक खदेड़कर विजय प्राप्त की जा सकती है।

लेकिन फिर भी धर्मयुद्ध को हम एक मंत्र की तरह सारे भारत में प्रसारित नहीं कर सके। धर्मयुद्ध एक सीमित क्षेत्र तक ही प्रभावित हुआ था।

जहां तक धर्मयुद्ध के महत्व की बात है, इस युद्ध ने भारत के बहुत से क्षेत्रों को स्वतंत्र किया। दिल्ली से पेशावर तक जो क्षेत्र पिछले 800 वर्षों से लगातार मुगलों, पठानों और तुर्कों द्वारा शासित रहे, उन्हें महाराजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्र किया। कांगड़ा से पेशावर तक शासन करने वाला अंतिम हिन्दू राजा था जयपाल सिंह, जिसका पुत्र आनंदपाल 1026 ई. में विदेशी आक्रांताओं से पराजित हुआ। 1026 ई. के बाद सन् 1799 में कहीं जाकर रणजीत सिंह ने पहले लाहौर पर कब्जा किया और सन् 1802 में महाराजा के रूप में उनका तिलक हुआ। इस दौरान पूरे 800 वर्षों तक उक्त प्रदेश विदेशी आक्रान्ताओं की गुलामी में रहे। 800 वर्षों बाद मिली यह सफलता अत्यंत महत्वपूर्ण थी। यह धर्मयुद्ध के मंत्र का प्रभाव था। वरना मुझे लगता है कि अब तक तो हिन्दुस्थान न जाने कितने टुकड़ों में बंट गया होता। इसी संदर्भ में छत्रपति शिवाजी महाराज का हिन्दवी साम्राज्य अभियान जो एक समय "अटक से कटक तक" स्थापित हो गया था, महत्वपूर्ण व प्रभावपूर्ण रहा था।

जिहाद के विरुद्ध संगठित न होने के पीछे भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था की काफी हद तक जिम्मेदार थी। अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय ब्राह्मण सदाशिवराव ने सूरजमल जाट का सहयोग नहीं लिया। यदि ऐसा होता तो संभवत: उनकी संगठित शक्ति के आगे अब्दाली टिक नहीं पाता। किन्तु छुआछूत और वर्णभेद की भावना हिन्दुओं के असंगठित रहने का एक कारण बनी।

यह ठीक है कि जिहाद के विरुद्ध या जबरन इस्लाम मत न कबूलने के विरोध सम्बंधी अनेक वैयक्तिक उदाहरण हैं। किन्तु व्यक्तिगत उदाहरण कुछ समय के लिए समाज का आदर्श बन सकते थे, एक सुगठित व सामूहिक मंच नहीं दे सकते थे। ऐसे अनेक उदाहरण धर्म और स्वाभिमान की रक्षा के उदाहरण थे, पर जिहाद का प्रत्युत्तर नहीं थे। जिहाद एक सामूहिक कर्म है और सामूहिकता ही इसका उत्तर है।

गुरु गोविन्द सिंह द्वारा लगाए गए धर्मयुद्ध के बीज को महाराजा रणजीत सिंह के समय तक पहुंचने और एक फलदार वृक्ष बनने तक लगभग 60-70 वर्ष का समय लगा। इस बीच में सिखों पर मुगल बादशाहों द्वारा बेहिसाब अत्याचार किए गए। इसका एक उदाहरण था लाहौर का सूबेदार मीर मन्नु। उसने एक काजी को स्थानीय गुड़मण्डी नामक स्थान पर बिठाया तथा सामान्यजन को लुभाते हुए कहा था कि जो एक सिख पकड़कर काजी के हवाले करेगा उसे 80 रुपए दिए जाएंगे। वहां लोग सिखों के शीश लाते और काजी उन्हें रुपए देता। वह स्थान शीशों से पट जाता था। यही नहीं, मांओं के सामने ही उनके बच्चों के टुकड़े कर उसकी माला उनके गले में पहना दी जाती थी। गुरु गोविन्द सिंह के बाद धर्मयुद्ध को आगे बढ़ाने वाला बंदा बहादुर अपने 700 लड़ाकों के साथ पकड़ा गया था। सात दिनों में 700 सिखों को कत्ल किया गया और बंदा बहादुर को भी अमानवीय यातनाएं देकर मारा गया। लेकिन यह धर्मयुद्ध की भावना का ही कमाल था कि सिख झुके नहीं। उस समय मीर मन्नू के अत्याचारों के लिए सिखों में एक कहावत प्रचलित हो गई थी-

मन्नू साडी दातरी, असी मन्नु दे सोए

ज्यों-ज्यों सानु वडता, असी दून सवाए होए।

अर्थात् मन्नू हमारी दरांती (फसल काटने का औजार) है और हम उसकी फसल। वह हमें जैसे-जैसे काटता जाता है, हम सवाए-दुगुने होते जाते हैं।

इसी प्रकार एक शब्द है- "घल्लूघारा" जो कालांतर में धर्मयुद्ध का ही एक प्रतीक शब्द बन गया, जिसका अर्थ है पठानों, अफगानों, मुगलों से हुआ संघर्ष। एक अनुमान के अनुसार, एक छोटे घल्लूघारा में 6,000 लोग मारे गए थे तथा एक अन्य में करीब 20,000 व्यक्ति मारे गए थे।

इसी तरह की एक अन्य घटना है अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर दो बार आक्रमण कर उसे तोप से उड़ाया गया। अमृत सरोवर में मिट्टी भरवा दी गई। किन्तु सिखों ने मौका मिलते ही सरोवर व मंदिर का दुबारा-दुबारा निर्माण किया और हर नए निर्माण को पहले से अधिक भव्य बनाया और अंतत: महाराणा रणजीत सिंह ने उसे सोने से भी मढ़वाया। एक अंग्रेज ने लिखा भी था, वे हर बार स्वर्ण मंदिर की सीढ़ियों को पठानों के खून से धोते थे।

कोई भी धर्मयुद्ध एक कीमत मांगता है। जो मृत्यु से डरता है, वो धर्मयुद्ध नहीं कर सकता। सिख गुरुओं ने लोगों के संगठित कर एक निश्चित लक्ष्य के लिए मरना सिखा दिया था। उस समय प्राणों के मोह से बड़ी स्वतंत्रता थी।
courtesy by :

Its अमात्य परिषद् (गैर राजनैतिक संगठन)

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